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________________ ६-क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय ४९ ५. गवासं मणिकुंडलं पसवो दासपोरुसं। सव्वमेयं चइत्ताणं कामरूवी भविस्ससि ॥ गौ-गाय और बैल, घोड़ा, मणि, कुण्डल, पश, दास और अन्य सहयोगी पुरुष-इन सबका परित्याग करने वाला साधक परलोक में कामरूपी देव होगा। थावरं जंगमं चेव धणं धण्णं उवक्खरं। पच्चमाणस्स कम्मेहि नालं दुक्खाउ मोयणे । अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणे पियायए। न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए ।। ८. आयाणं नरयं दिस्स नायएज्ज तणामवि। दोगुंछी अप्पणो पाए दिन्नं भुंजेज्ज भोयणं॥ कर्मों से दुःख पाते हए प्राणी को स्थावर-जंगम-अर्थात् चल-अचल संपत्ति, धन, धान्य और उपस्करगृहोपकरण भी दुःख से मुक्त करने में समर्थ नहीं होते हैं। ___ 'सबको सब तरह से अध्यात्म-सुख प्रिय है, सभी प्राणियों को अपना जीवन प्रिय है'-यह जानकर भय और वैर से उपरत साधक किसी भी प्राणी के प्राणों की हिंसा न करे। अदत्तादान (चोरी) नरक है, यह जानकर बिना दिया हआ एक तिनका भी मुनि न ले। असंयम के प्रति जुगुप्सा रखने वाला मुनि अपने पात्र में गृहस्थ द्वारा दिया हुआ ही भोजन ग्रहण करे। इस संसार में कुछ लोग मानते हैं कि–'पापों का परित्याग किए बिना ही केवल आर्य-तत्वज्ञान अथवा आचरण को जानने-भर से ही जीव सब दुःखों से मुक्त हो जाता है।' जो बन्ध और मोक्ष के सिद्धान्तों की स्थापना तो करते हैं, कहते बहत कुछ हैं, किन्तु करते हुछ नहीं हैं, वे ज्ञानवादी केवल वागवीर्य से-अर्थात् वाणी के बल से अपने को आश्वस्त करते रहते हैं। ९. इहमेगे उ मनन्ति अप्पच्चक्खाय पावगं । आयरियं विदित्ताणं सव्वदुक्खा विमुच्चई॥ १०. भणन्ता अकरेन्ता य बन्ध-मोक्खपइण्णिणो। वाया-विरियमेत्तेण समासासेन्ति अप्पयं ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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