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क्षुल्लक निर्ग्रन्थीय
ग्रन्थ बन्धन है, विद्यानुशासन भी बन्धन है ।
प्रस्तुत अध्ययन का नाम 'क्षुल्लक निर्ग्रन्थ' है । निर्ग्रन्थ शब्द जैन आगमों का महत्त्वपूर्ण शब्द है । भगवान् महावीर को भी 'निर्ग्रन्थ ज्ञातपुत्र' के नाम से अनेक जगह सम्बोधित किया है । भगवान् महावीर के परिनिर्वाण के बाद कई शताब्दियों तक भगवान् महावीर के संघ और धर्म को भी 'निर्ग्रन्थ धर्म' कहा गया है ।
स्थूल और सूक्ष्म दोनों प्रकार के ग्रन्थ का परित्याग पर क्षुल्लक अर्थात् साधु निर्ग्रन्थ होता है । स्थूलग्रन्थ का अर्थ है - आवश्यकता के अतिरिक्त वस्तुओं को जोड़कर रखना और सूक्ष्म ग्रन्थ का अर्थ है- 'मूर्च्छा' ।
राग और द्वेष के बन्धन को भी 'ग्रन्थ' कहते हैं । निर्ग्रन्थ होने के लिए साधु इसका भी परित्याग करता है । ग्रन्थ का मूल अर्थ 'गांठ' है, फिर भले वह बाहर की हो, या अन्दर की ।
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अज्ञान दुःख का कारण है, किन्तु भाषा का ज्ञान या कोरा सैद्धान्तिक शब्द ज्ञान भी दुःख को दूर नहीं कर सकता। जो कहता अधिक है, जीवन की पवित्रता का काफी ज्ञान बघारता है, किन्तु तदनुसार करता कुछ भी नहीं है, वह अपने कोरे शब्दज्ञान से मुक्तिलाभ नहीं कर पाता । ज्ञान, जो केवल ग्रन्थ तक सीमित है, जीवन में उतरा नहीं है, वह भी ग्रन्थ है, भार है, बन्धन है। सच्चा साधु इस ग्रन्थ से भी मुक्त होता है ।
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