________________
उत्तराध्ययन सूत्र
२७. दीहाउया इड्डिमन्ता
समिद्धा काम-रूविणो। अहुणोववन्न-संकासा भुज्जो अच्चिमालि-प्पभा॥
दीर्घायु, ऋद्धिमान्, दीप्तिमान्, इच्छानुसार रूप धारण करने वाले और अभी-अभी उत्पन्न हुए हों, ऐसी भव्य कांति वाले एवं सूर्य के समान अत्यन्त तेजस्वी होते हैं।
भिक्ष हो या गृहस्थ, जो हिंसा आदि से निवृत्त होते हैं, वे संयम और तप का अभ्यास कर उक्त देव लोकों में जाते हैं।
ताणि ठाणाणि गच्छन्ति सिक्खित्ता संजमं तवं। भिक्खाए वा गिहत्थे वा
जे सन्ति परिनिव्वुडा॥ २९. तेसिं सोच्चा सपज्जाणं
संजयाण वुसीमओ। न संतसन्ति मरणन्ते सीलवन्ता बहुस्सुया॥
३०. तुलिया विसेसमादाय
दयाधम्मस्स खन्तिए। विप्पसीएज्ज मेहावी तहा-भूएण अप्पणा ।।
३१. तओ काले अभिप्पए
सड्डी तालिसमन्तिए। विणएज्ज लोम-हरिसं भेयं देहस्स कंखए।।
सत्पुरुषों के द्वारा पूजनीय उन संयत और जितेन्द्रिय आत्माओं के उक्त वृत्तान्त को सुनकर शीलवान् बहुश्रुत साधक मृत्यु के समय में भी संत्रस्त नहीं होते हैं।
बालमरण और पंडितमरण की परस्पर तुलना करके मेधावी साधक विशिष्ट सकाम मरण को स्वीकार करे,
और मरण काल में दया धर्म एवं क्षमा से पवित्र तथा भूत आत्मा से प्रसन्न रहे।
जब मरण-काल आए, तो जिस श्रद्धा से प्रव्रज्या स्वीकार की थी, तदनुसार ही भिक्षु गुरु के समीप पीडाजन्य लोमहर्ष को दूर करे, तथा शान्तिभाव से शरीर के भेद अर्थात् पतन की प्रतीक्षा करे। __ मृत्यु का समय आने पर मुनि भक्ते-परिज्ञा, इंगिनी और प्रायोपगमन -इन तीनों में से किसी एक को स्वीकार कर समाधिपूर्वक सकाम मरण से शरीर को छोड़ता है।
—ऐसा मैं कहता हूँ।
३२. अह कालंमि संपत्ते
आघायाय समुस्सयं। सकाम-मरणं मरई तिहमन्त्रयरं मुणी॥ -त्ति बेमि।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org