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५-अकाममरणीय
२१. चीराजिणं नगिणिणं
जडी-संघाडि-मुण्डिणं। एयाणि वि न तायन्ति दुस्सीलं परियागयं॥
दुराचारी साधु को चीवर-वस्त्र, अजिन-मृगछाला आदि चर्म, नग्नत्व, जटा, गुदड़ी, शिरोमुंडन आदि बाह्याचार, नरकगति में जाने से नहीं बचा सकते।
भिक्षावृत्ति से निर्वाह करने वाला भी यदि दुःशील है तो वह नरक से मुक्त नहीं हो सकता है। भिक्षु हो अथवा गृहस्थ, यदि वह सुव्रती है, तो स्वर्ग में जाता है।
२२. पिण्डोलए व दुस्सीले
नरगाओ न मुच्चई। भिक्खाए वा गिहत्थे वा सुव्वए कम्मई दिवं ॥
२३. अगारि-सामाइयंगाई
सडी काएण फासए। पोसहं दुहओ पक्खं एगरायं न हावए।
श्रद्धावान् गृहस्थ सामायिक साधना के सभी अंगों का काया से स्पर्श करे, अर्थात् आचरण करे । कृष्ण और शुक्ल दोनों पक्षों में पौषध व्रत को एक रात्रि के लिए भी न छोड़े।
इस प्रकार धर्मशिक्षा से सम्पन्न सुव्रती गृहवास में रहता हुआ भी मानवीय औदारिक शरीर को छोड़कर देवलोक में जाता है।
२४. एवं सिक्खा -समावन्ने
गिह-वासे वि सुव्वए। मुच्चई छवि-पव्वाओ
गच्छे जक्ख-सलोगयं ॥ २५. अह जे संवुडे भिक्खू
दोहं अन्नयरे सिया। सव्व-दुक्ख-प्पहीणे वा देवे वावि महड्डिए।।
संवृत-संयमी भिक्षु की दोनों में से एक स्थिति होती है-या तो वह सदा के लिए सब दुःखों से मुक्त होता है अथवा महान् ऋद्धिवाला देव होता है।
२६. उत्तराई विमोहाई
जुइमन्ताणुपुव्वसो। समाइण्णाइं जक्खेहि आवासाइं जसंसिणो॥
देवताओं के आवास अनुक्रम से ऊर्ध्व अथवा उत्तम, मोहरहित, द्युतिमान्, तथा देवों से परिव्याप्त होते हैं। उनमें रहने वाले देव यशस्वी
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