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उत्तराध्ययन सूत्र
५. जे गिद्धे कामभोगेसु
एगे कूडाय गच्छई। 'न मे दिवे परे लोए. चक्खु-ट्ठिा इमा रई॥
जो काम-भोगों में आसक्त होता है, वह कूट (हिंसा एवं मिथ्या भाषण) की ओर जाता है।
वह कहता है—“परलोक तो मैंने देखा नहीं है। और यह रति (सांसारिक सुख) प्रत्यक्ष आँखों के सामने है-"
६. 'हत्थागया इमे कामा।
कालिया जे अणागया। को जाणइ परे लोए अस्थि वा नत्थि वा पुणो।'
“वर्तमान के ये कामभोगसम्बन्धी सुख तो हस्तगतं हैं। भविष्य में मिलने वाले सुख संदिग्ध हैं। कौन जानता है-परलोक है भी या नहीं-"
७. 'जणेण सद्धि होक्खामि'
इइ बाले पगब्भई। काम-भोगाणुराएणं केसं संपडिवज्जई॥
"मैं तो आम लोगों के साथ रहूँगा। अर्थात् जो उनकी स्थिति होगी, वह मेरी होगी"--ऐसा मानकर अज्ञानी मनुष्य भ्रष्ट हो जाता है। किन्तु अन्ततोगत्वा वह कामभोग के अनुराग से कष्ट ही पाता है।
८. तओ से दण्डं समारभई
तसेसु थावरेसु य। अट्ठाए य अणट्टाए भूयग्गामं विहिंसई॥
फिर वह त्रस एवं स्थावर जीवों के प्रति दण्ड का प्रयोग करता है। प्रयोजन से अथवा कभी निष्प्रयोजन ही प्राणी-समूह की हिंसा करता है।
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हिंसे बाले मुसावाई माइल्ल पिसुणे सढे। भुंजमाणे सुरं मंसं सेयमेयं ति मनई॥
जो हिंसक, बाल-अज्ञानी, मृषावादी, मायावी, चुगलखोर तथा शठ (धूर्त) होता है वह मद्य एवं मांस का सेवन करता हुआ यह मानता है कि यही श्रेय है।
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