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उत्तराध्ययन सूत्र
समय आता है, आत्मा और शरीर को जोड़े रखने वाला आयुष्कर्म भी प्रतिक्षण क्षीण होता-होता अन्त में सर्वथा क्षीण हो जाता है, और मृत्यु हो जाती है ।
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मृत्यु का दुःख क्यों है ?
मृत्यु को नहीं जाना है, इसलिए मृत्यु का दुःख है । यह अज्ञान ही मृत्यु के सम्बन्ध में भय पैदा करता है, फलतः दुःख का कारण बनता है । मुक्त हुआ जा सकता है ?
क्या मृत्यु
के भय से
हाँ, मृत्यु को जानकर मृत्यु के भय से मुक्त हुआ जा सकता है, किन्तु मृत्यु मृत्यु से नहीं जाना जा सकता है ।
को
वरन् मृत्यु को जीवन से जाना जा सकता है ।
आत्मा और शरीर के यौगिक जीवन से नहीं, किन्तु मौलिक आत्म- द्रव्य के जीवन सेस्वयं की सत्ता के बोध से
स्वस्वरूप में रमणता से संलीनता से ।
-
इसी
इस बोध से मृत्यु का भय मिट जाता है, केवल मृत्यु रह जाती है । और मृत्यु को सूत्रकार ने पण्डितों का सकाम मरण कहा है। और वह मृत्यु, जिसमें भय, खेद और कष्ट है, आत्म-ज्ञान नहीं है, वह बालजीवों का - अज्ञानियों का अकाम मरण है ।
साधक सकाम मरण की अपेक्षा करे, अकाम मरण की नहीं । सकाम मरण संयम से और आत्म-बोध से होता है । अकाम मरण असंयम से और आत्मअज्ञान से होता है ।
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