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________________ उत्तराध्ययन सूत्र ८. छन्दं निरोहेण उवेइ मोक्खं शिक्षित और वर्म (कवच)–धारी आसे जहा सिक्खिय-वम्मधारी। अश्व जैसे युद्ध से पार हो जाता है, पुव्वाइं वासाइं चरेऽप्पमत्तो वैसे ही स्वच्छन्दता का निरोध करने तम्हा मुणी खिप्पमुवेइ मोक्खं। वाला साधक संसार से पार हो जाता है। पूर्व जीवन में अप्रमत्त होकर विचरण करने वाला मुनि शीघ्र ही मोक्ष को प्राप्त होता है। स पुव्वमेवं न लभेज्ज पच्छा 'जो पूर्व जीवन में अप्रमत्तएसोवमा सासय-वाइयाणं। जागृत नहीं रहता, वह बाद में भी विसीयई सिढिले आउयंमि अप्रमत्त नहीं हो पाता है-' यह ज्ञानी कालोवणीए सरीरस्स भेए॥ जनों की उपमा-धारणा है। ‘अभी क्या है, बाद में अन्तिम समय अप्रमत्त हो जाएंगे-' यह शाश्वतवादियों (अपने को अजर-अमर समझने वाले अज्ञानियों) की मिथ्या धारणा है । पूर्व जीवन में प्रमत्त रहने वाला व्यक्ति, आयु के शिथिल होने पर मृत्यु के समय, शरीर छूटने की स्थिति आने पर विषाद को पाता है। १०. खिप्पं न सक्केइ विवेगमेउं तम्हा समुट्ठाय पहाय कामे। समिच्च लोयं समया महेसी अप्पाण-रक्खी चरमप्यमत्तो। कोई भी तत्काल विवेक (त्याग) को प्राप्त नहीं कर सकता। अत: अभी से कामनाओं का परित्याग कर, सन्मार्ग में उपस्थित होकर, समत्व दृष्टि सेलोक (स्वजन-परजन आदि समग्रजन) को अच्छी तरह जानकर आत्मरक्षक महर्षि अप्रमत्त होकर विचरण करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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