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४ - असंस्कृत
११. मुहुं मुहुं मोह-गुणे जयन्तं अणेग-रूवा समणं चरन्तं । फासा फुसन्ती असमंजसं च न तेसु भिक्खू मणसा पउस्से ||
१२. मन्दाय फासा बहु-लोहणिज्जा तह- पगारेसु मणं न कुज्जा रक्खेज्ज कोहं, विणएज्ज माणं मायं न सेवे, पयहेज्ज लोहं ।
।
१३. जेऽसंखया तुच्छ परप्पवाई
ते पिज्ज-दोसाणुगया परज्झा । एए 'अहम्मे' ति दुगुंछमाणो कं गुणे जाव सरीर - भेओ ।।
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—त्ति बेमि ।
बार-बार मोह - गुणों पर - रागद्वेष की वृत्तियों पर विजय पाने को यत्नशील संयम में विचरण करते श्रमण को अनेक प्रकार के प्रतिकूल स्पर्श अर्थात् शब्दादि विषय परेशान करते हैं । किन्तु भिक्षु उन पर मन से भी द्वेष न करे ।
अनुकूल स्पर्श बहुत लुभावने होते हैं । किन्तु साधक तथा प्रकार के विषयों में मन को न लगाए । क्रोध से अपने को बचाए रखे। मान को दूर करे । माया का सेवन न करे । लोभ को त्यागे ।
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जो व्यक्ति संस्कारहीन हैं, तुच्छ हैं और परप्रवादी हैं, जो प्रेय - राग और द्वेष में फँसे हुए हैं, वासनाओं के दास हैं, वे 'धर्म रहित हैं' साधक उनसे दूर रहे अन्तिम क्षणों तक सद्गुणों की
- ऐसा जानकर
।
शरीर-भेद के
आराधना करे ।
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- ऐसा मैं कहता हूँ ।
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