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४-असंस्कृत
४. संसारमावन्न परस्स अट्ठा संसारी जीव अपने और अन्य
साहारणं जं च करेइ कम्म। बंधु-बांधवों के लिए साधारण (सबके कम्मस्सते तस्सउवेय-काले लिए समान लाभ की इच्छा से किया न बन्धवा बन्धवयं उवेन्ति । जाने वाला) कर्म करता है, किन्तु उस
कर्म के फलोदय के समय कोई भी बन्धु बन्धुता नहीं दिखाता है
हिस्सेदार नहीं होता है। ५. वित्तेण ताणं न लभे पमत्ते प्रमत्त मनुष्य इस लोक में और
इमंमि लोए अदुवा परत्था। परलोक में धन से त्राण-संरक्षण नहीं दीव-प्पणढे व अणन्त-मोहे पाता है। अंधेरे में जिसका दीप बुझ नेयाउयं दट्टमट्टमेव ॥
गया हो उसका पहले प्रकाश में देखा हुआ मार्ग भी न देखे हए की तरह जैसे हो जाता है, वैसे ही अनन्त मोह के कारण प्रमत्त व्यक्ति मोक्ष-मार्ग को
देखता हुआ भी नहीं देखता है। सुत्तेसु यावी पडिबुद्ध-जीवी ___आशुप्रज्ञावाला ज्ञानी साधक सोए न वीससे पण्डिए आसु-पन्ने। हुए लोगों में भी प्रतिक्षण जागता रहे। घोरा मुहत्ता अबलं सरीरं । प्रमाद में एक क्षण के लिए भी भारण्ड-पक्खीवचरेऽप्पमत्तो॥ विश्वास न करे। समय भयंकर है,
शरीर दुर्बल है। अत: भारण्ड पक्षी की तरह अप्रमादी होकर विचरण करना
चाहिए। ७. चरे पयाइं परिसंकमाणो साधक पग-पग पर दोषों की
जं किंचि पासंइह मण्णमाणो। संभावना को ध्यान में रखता हुआ चले, लाभन्तरे जीविय वूहइत्ता छोटे से छोटे दोष को भी पाश (जाल) पच्छा परिन्नाय मलावधंसी। समझकर सावधान रहे। नये-नये गुणों
के लाभ के लिए जीवन को सुरक्षित रखे। और जब लाभ न होता दीखे तो परिज्ञानपूर्वक धर्म-साधना के साथ शरीर को छोड़ दे।
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