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________________ चउत्थं उज्झयणं : चतुर्थ अध्ययन ___ असंखयं : असंस्कृत मूल _ हिन्दी अनुवाद असंखयं जीविय मा पमायए टूटा जीवन सांधा नहीं जा सकता, जरोवणीयस्स हु नस्थि ताणं। अत: प्रमाद मत करो, बुढ़ापा आने पर एवं वियाणाहि जणे पमत्ते कोई शरण नहीं है। यह विचार करो कण्णूविहिंसा अजया गहिन्ति ॥ कि 'प्रमादी, हिंसक और असंयमी मनुष्य समय पर किसकी शरण लेंगे।' २. जे पावकम्मेहि धणं मणुस्सा जो मनुष्य अज्ञानता के कारण समाययन्ती अमई गहाय। पाप-प्रवृत्तियों से धन का उपार्जन करते पहाय ते पासपयट्टिए नरे हैं, वे वासना के जाल में पड़े हए और वेराणुबद्धा नरयं उवेन्ति ॥ वैर (कर्म) से बँधे हुए अन्त में मरने के बाद नरक में जाते हैं। ३. तेणे जहा सन्धि-मुहे गहीए जैसे सेंध लगाते हुए संधि-मुख में एकम्मुणा किच्चइ पावकारी। पकड़ा गया पापकारी चोर अपने किए एवं पया पेच्च इहं च लोए हुए कर्म से छेदा जाता है, वैसे ही जीव कडाण कम्माण न मोक्ख अस्थि ॥ अपने कृत कर्मों के कारण लोक तथा परलोक में छेदा जाता है। किए हुए कर्मों को भोगे बिना छुटकारा नहीं है। ३४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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