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________________ उत्तराध्ययन सूत्र अप्पिया देवकामाणं कामरूव-विउव्विणो। उड्ढे कप्पेसु चिट्ठन्ति पुव्वा वाससया बहू॥ १६. तत्य ठिच्चा जहाठाणं जक्खा आउक्खए चुया। उवेन्ति माणुसं जोणिं से दसंगेऽभिजायई॥ १७. खेत्तं वत्थु हिरण्णं च पसवो दास-पोरुसं। चत्तारि काम-खन्धाणि तत्थ से उववज्जई ।। १८. मित्तवं नायवं होड़ उच्चागोए य वण्णवं । अप्पायंके महापन्ने अभिजाए जसोबले॥ भोच्चा माणुस्सए भोए अप्पडिरूवे अहाउयं । पुव्वं विसुद्ध-सद्धम्मे केवलंबोहि बुझ्झिया। एक प्रकार से दिव्य भोगों के लिए अपने को अर्पित किए हए वे देव इच्छानुसार रूप बनाने में समर्थ होते हैं। तथा ऊर्ध्व कल्पों में पूर्व वर्ष शत अर्थात् असंख्य काल तक रहते हैं। वहाँ देवलोक में यथास्थान अपनी काल-मर्यादा तक ठहरकर, आयु क्षय होने पर वे देव वहाँ से लौटते हैं, और मनुष्य-योनि को प्राप्त होते हैं। वे वहाँ दशांग भोग-सामग्री से युक्त होते हैं। क्षेत्र-खेतों की भूमि, वास्तु-गृह, स्वर्ण, पशु और दास-पौरुषेय-ये चार काम-स्कन्ध जहाँ होते हैं, वहाँ वे उत्पन्न होते हैं। वे सन्मित्रों से युक्त, ज्ञातिमान्, उच्च गोत्र वाले, सुन्दर वर्ण वाले, नीरोग, महाप्राज्ञ, अभिजात--कुलीन, यशस्वी और बलवान होते हैं। ___ जीवनपर्यन्त अनुपम मानवीय भोगों को भोगकर भी पूर्व काल में विशुद्ध सद्धर्म के आराधक होने के कारण निर्मल बोधि का अनुभव करते २०. चउरंगं दुल्लहं नच्चा संजमं पडिवज्जिया। तवसा धुयकम्मंसे सिद्धे हवइ सासए । पूर्वोक्त चार अंगों को दुर्लभ जानकर साधक संयम धर्म को स्वीकार करते हैं। अनन्तर तपश्चर्या से समग्र कर्मों को दूर कर शाश्वत सिद्ध होते -त्ति बेमि। -ऐसा मैं कहता हूँ। ***** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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