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३-चतुरङ्गीय
वीरियं पुण दुल्लहं। बहवे रोयमाणा वि नो एणं पडिवज्जए ।
श्रुति और श्रद्धा प्राप्त करके भी संयम में पुरुषार्थ होना अत्यन्त दुर्लभ है। बहुत से लोग संयम में अभिरुचि रखते हुए भी उसे सम्यक्तया स्वीकार नहीं कर पाते
११. माणुसत्तंमि आयाओ
जो धम्मं सोच्च सद्दहे। तवस्सी वीरियं लड़े संवुडे निद्रुणे रयं॥
मनुष्यत्व प्राप्त कर जो धर्म को सुनता है, उसमें श्रद्धा करता है, वह तपस्वी संयम में पुरुषार्थ कर संवृत (अनाश्रव) होता है, कर्म रज को दूर करता है।
जो सरल होता है, उसे शुद्धि प्राप्त होती है। जो शुद्ध होता है, उसमें धर्म रहता है। जिसमें धर्म है वह घृत से सिक्त अग्नि की तरह परम निर्वाण (विशुद्ध आत्म दीप्ति) को प्राप्त होता
१२. सोही उज्जुयभूयस्स
धम्मो सुद्धस्स चिट्ठई। निव्वाणं परमं जाइ घय-सित्त व्व पावए।
है।
१३. विगिंच कम्मुणो हेडं
जसं संचिणु खन्तिए। पाढवं सरीरं हिच्चा उड़े पक्कमई दिसं॥
१४. विसालिसेहिं सीलेहि
जक्खा उत्तर-उत्तरा। महासुक्का व दिप्पन्ता मन्नन्ता अपुणच्चवं ।।
कर्मों के हेतओं को दर करके और क्षमा से यश-संयम का संचय करके वह साधक पार्थिव शरीर को छोड़कर ऊर्ध्व दिशा (स्वर्ग अथवा मोक्ष) की ओर जाता है।
अनेक प्रकार के शील को पालन करने से देव होते हैं। उत्तरोत्तर समृद्धि के द्वारा महाशुक्लसूर्य चन्द्र की भाँति दीप्तिमान होते हैं। और तब वे 'स्वर्ग से च्यवन नहीं होता है'-ऐसा मानने लगते हैं।
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