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________________ उत्तराध्ययन सूत्र एवमावट्ट-जोणीसु पाणिणो कम्मकिब्बिसा। न निविज्जन्ति संसारे सवढेसु व खत्तिया ।। ६. कम्म-संगेहिं सम्मूढा दुक्खिया बहु-वेयणा। अमाणुसासु जोणीसु विणिहम्मन्ति पाणिणो॥ कम्माणं तु पहाणाए आणुपुव्वी कयाइ उ। जीवा सोहिमणुप्पत्ता। आययन्ति मणुस्सयं ।। जिस प्रकार क्षत्रिय लोग चिरकाल तक समग्र ऐश्वर्य एवं सुखसाधनों का उपभोग करने पर भी निर्वेदविरक्ति को प्राप्त नहीं होते हैं, उसी प्रकार कर्मों से मलिन जीव अनादि काल से आवर्त-स्वरूप योनिचक्र में भ्रमण करते हुए भी संसार दशा से निर्वेद नहीं पाते हैंजन्म-मरण के चक्र से मुक्त होने की इच्छा नहीं करते हैं। कर्मों के संग से अति मूढ, दुःखित और अत्यन्त वेदना से युक्त प्राणी मनुष्येतर योनियों में जन्म लेकर पुन:-पुन: विनिघात–त्रास पाते हैं। कालक्रम के अनुसार कदाचित् मनुष्यगतिनिरोधक कर्मों के क्षय होने से जीवों को शुद्धि प्राप्त होती है और उसके फलस्वरूप उन्हें मनुष्यत्व प्राप्त होता है। मनुष्यशरीर प्राप्त होने पर भी धर्म का श्रवण दुर्लभ है, जिसे सुनकर जीव तप, क्षमा और अहिंसा को प्राप्त करते हैं। कदाचित् धर्म का श्रवण हो भी जाए, फिर भी उस पर श्रद्धा का होना परम दुर्लभ है। बहुत से लोग नैयायिक मार्ग-न्यायसंगत मोक्षमार्ग को सुनकर भी उससे विचलित हो जाते हैं। माणुस्सं विग्गहं लड़े सुई धम्मस्स दुल्लहा। जं सोच्चा पडिवज्जन्ति तवं खन्तिमहिंसयं ॥ आहच्च सवणं लड़े सद्धा परमदुल्लहा। सोच्चा नेआउयं मग्गं बहवे परिभस्सई॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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