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________________ ३ चतुरंगीय मानवता, सद्धर्म-श्रवण, यथार्थ दृष्टि, सम्यक् श्रमये परिनिर्वाण के चार अंग हैं। अनन्त संसारयात्रा पर चली आती जीवन की नौका, बारी-बारी से जन्म और मृत्यु के दो तटों को स्पर्श करती हुई, कभी ऐसे महत्त्वपूर्ण तट पर लग जाती है, जहाँ उसे यात्रा की परेशानी से मुक्त होने के अवसर मिल जाते हैं। इसी विषय की चर्चा इस तीसरे अध्ययन में है । मानव-देह से ही मुक्ति होती है, और किसी देह से नहीं होती । मनुष्य - देह की तरह और भी बहुत से देह हैं, और उनमें कुछ मनुष्य- देह से भी अच्छे देह हैं, किन्तु उनमें मुक्ति प्राप्त होने की योग्यता नहीं है। क्यों नहीं है ? इस 'नहीं' का कारण है कि मनुष्य के देह में मानवता, जो आध्यात्मिक जीवन की भूमि है, अल्प प्रयास से प्राप्त हो सकती है । वह पशु आदि के अन्य देहों में नामुमकिन है । इसका फलित अर्थ है, मनुष्य देह से नहीं, किन्तु मनुष्यत्व से मुक्ति है । मनुष्य देह पूर्व कर्म के फल से मिलता है और मनुष्यत्व कर्म फल को निष्फल करने से मिलता है । मनुष्य- देह प्राप्त होने के बाद भी मनुष्यत्व प्राप्त करना परम दुर्लभ है। मनुष्यत्व के साथ दूसरा अंग है 'श्रुति' - अर्थात् सद्धर्म का श्रवण । तत्त्ववेत्ताओं के द्वारा जाने गए मार्ग का श्रवण । सद्धर्म के श्रवण से ही व्यक्ति हेय, ज्ञेय एवं उपादेय का बोध कर सकता है । मनुष्यत्व प्राप्त होने के बाद भी श्रुति परम दुर्लभ है। Jain Education International २७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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