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२ -- परीषह - प्रविभक्ति
३९. अणुक्कसाई अप्पिच्छे अन्नाएसी अलोलुए । रसेसु नाणुगिज्झेज्जा नाणुतप्पेज्ज पन्नवं ॥
४०. 'से नूणं मए पुव्वं
कम्माणाणफला कडा । जेणाहं नाभिजाणामि पुट्ठो केणइ कण्हुई ।'
४१. 'अह पच्छा उइज्जन्ति कम्माणाणफला कडा ।' एवमस्सासि अप्पाणं नच्चा कम्मविवागयं ॥
४२. 'निरट्ठगम्मि विरओ मेहुणाओ. संवुडो । जो सक्खं नाभिजाणामि धम्मं कल्लाण पावगं ॥'
४३. 'तवोवहाणमादाय पडिमं पडिवज्जओ । एवं पि विहरओ मे छउमं न नियट्टई ॥'
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अनुत्कर्ष - निरहंकार की वृत्ति वाला, अल्प इच्छा वाला, अज्ञात कुलों से भिक्षा लेने वाला अलोलुप भिक्षु रसों में गृद्ध-आसक्त न हो । प्रज्ञावान् दूसरों को सम्मान पाते देख अनुताप न करे ।
२० - प्रज्ञा - परीषह
" निश्चय ही मैंने पूर्व काल में अज्ञानरूप फल देने वाले अपकर्म किए हैं, जिससे मैं किसी के द्वारा किसी विषय में पूछे जाने पर कुछ भी उत्तर देना नहीं जानता हूँ ।"
आ
'अज्ञानरूप फल देने वाले पूर्वकृत कर्म परिपक्व होने पर उदय हैं' - इस प्रकार कर्म के विपाक को जानकर मुनि अपने वज्र
करे ।
२१ - अज्ञान - परीषह
“मैं व्यर्थ में ही मैथुनादि सांसारिक सुखों से विरक्त हुआ, इन्द्रिय और मन का संवरण किया। क्योंकि धर्म कल्याणकारी है या पापकारी है, यह मैं प्रत्यक्ष तो कुछ देख पाता नहीं हूँ” – ऐसा मुनि न सोचे ।
" तप और उपधान को स्वीकार करता हूँ, प्रतिमाओं का भी पालन कर रहा हूँ, इस प्रकार विशिष्ट साधनापथ पर विहरण करने पर भी मेरा छद्म अर्थात् ज्ञानावरणादि कर्म का आवरण दूर नहीं हो रहा है”- ऐसा चिन्तन न करे ।
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