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________________ उत्तराध्ययन सूत्र ३४. अचेलगस्स लूहस्स संजयस्स तवस्सिणो। तणेसु सयमाणस्स हुज्जा गाय-विराहणा॥ १७-तृण-स्पर्श-परीषह अचेलक और रूक्षशरीरी संयत तपस्वी साधु को घास पर सोने से शरीर को कष्ट होता है। ३५. आयवस्स निवाएणं अउला हवइ वेयणा। एवं नच्चा न सेवन्ति तन्तुजं तण-तज्जिया। गर्मी पड़ने से घास पर सोते समय बहुत वेदना होती है, यह जान करके तृण-स्पर्श से पीड़ित मुनि वस्त्र धारण नहीं करते हैं। ३६. किलिन्नगाए मेहावी पंकेण व रएण वा। प्रिंसु वा परितावेण सायं नो परिदेवए॥ १८-मल-परीषह ग्रीष्म ऋतु में मैल से, रज से अथवा परिताप से शरीर के क्लिनलिप्त हो जाने पर मेधावी मुनि साता के लिए परिदेवना-विलाप न करे । ३७. वेएज्ज निज्जरा-पेही आरियं धम्मऽणुत्तरं । जाव सरीरभेउ त्ति जल्लं काएण धारए। निर्जरार्थी मुनि अनुत्तर-अद्वितीय श्रेष्ठ आर्य-धर्म (वीतरागभाव की साधना) को पाकर शरीर-विनाश के अन्तिम क्षणों तक भी शरीर पर जल्ल-स्वेद-जन्य मैल को रहने दे। उसे समभाव से सहन करे । ३८. अभिवायणमब्भुट्ठाणं सामी कुज्जा निमन्तणं। जे ताइं पडिसेवन्ति न तेसिं पीहए मुणी॥ १९-सत्कार-पुरस्कार-परीषह राजा आदि शासकवर्गीय लोगों के द्वारा किए गए अभिवादन, सत्कार एवं निमन्त्रण को जो अन्य भिक्षु स्वीकार करते हैं, मुनि उनकी स्पृहा न करे। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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