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________________ २-परीषह-प्रविभक्ति २९. गोयरग्गपविठुस्स पाणी नो सुप्पसारए। 'सेओ अगार-वासु' त्ति इइ भिक्खू न चिन्तए। गोचरी के लिए घर में प्रविष्ट साधु के लिए गृहस्थ के सामने हाथ फैलाना सरल नहीं है, अत: 'गृहवास ही श्रेष्ठ है'-मुनि ऐसा चिन्तन न करे। १५-अलाभ-परीषह ३०. परेसु घासमेसेज्जा भोयणे परिणिट्ठए। लद्धे पिण्डे अलद्धे वा नाणुतप्पेज्ज संजए। गृहस्थों के घरों में भोजन तैयार हो जाने पर आहार की एषणा करे। आहार थोड़ा मिले, या कभी न भी मिले, पर संयमी मुनि इसके लिए अनुताप न करे। ३१. 'अज्जेवाहं न लब्भामि अवि लाभो सुए सिया।' जो एवं पडिसंचिक्खे अलाभो तं न तज्जए। 'आज मुझे कुछ नहीं मिला, संभव है, कल मिल जाय'-जो इस प्रकार सोचता है, उसे अलाभ कष्ट नहीं देता। ३२. नच्चा उप्पइयं दुक्खं वेयणाए दुहट्टिए। अदीणो थावए पन्नं पुट्ठो तत्थऽहियासए। १६-रोग-परीषह 'कर्मों के उदय से रोग उत्पन्न होता है'-ऐसा जानकर वेदना से पीड़ित होने पर दीन न बने । व्याधि से विचलित प्रज्ञा को स्थिर बनाए और प्राप्त पीड़ा को समभाव से सहन करे। ३३. तेगिच्छं नाभिनन्देज्जा संचिक्खऽत्तगवेसए। एवं खु तस्स सामण्णं जं न कुज्जा , न कारवे॥ आत्म-गवेषक मनि चिकित्सा का अभिनन्दन न करे, समाधिपूर्वक रहे । यही उसका श्रामण्य है कि वह रोग उत्पन्न होने पर चिकित्सा न करे, न कराए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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