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उत्तराध्ययन सूत्र
२४. अक्कोसेज्ज परो भिक्खु
न तेसिं पडिसंजले। सरिसो होइ बालाणं तम्हा भिक्खू न संजले॥
१२-आक्रोश-परीषह
यदि कोई भिक्षु को गाली दे, तो वह उसके प्रति क्रोध न करे। क्रोध करने वाला अज्ञानियों के सदृश होता है। अत: भिक्षु आक्रोश-काल में संज्वलित न हो, उबाल न खाए।
२५. सोच्चाणं फरुसा भासा
दारुणा गाम-कंटगा। तुसिणीओ उवेहेज्जा न ताओ मणसीकरे ॥
दारुण (असह्य), ग्रामकण्टक___ काँटे की तरह चुभने वाली कठोर भाषा
को सुन कर भिक्षु मौन रहे, उपेक्षा करे, उसे मन में भी न लाए।
१३-वध-परीषह
मारे-पीटे जाने पर भी भिक्षु क्रोध न करे । और तो क्या, दुर्भावना से मन को भी दषित न करे । तितिक्षा-क्षमा को साधना का श्रेष्ठ अंग जानकर मुनिधर्म का चिन्तन करे।
२६. हओ न संजले भिक्खू
मणं पि न पओसए। तितिक्खं परमं नच्चा भिक्खु-धम्मं विचिंतए।
२७. समणं संजयं दन्तं
हणेज्जा कोई कत्थई। 'नस्थि जीवस्स नासु' त्ति एवं पेहेज संजए॥
संयत और दान्त-इन्द्रिय-जयी श्रमण को यदि कोई कहीं मारे-पीटे तो उसे यह चिन्तन करना चाहिए, कि आत्मा का नाश नहीं होता है।
२८. दुक्करं खलु भो निच्चं
अणगारस्स भिक्खुणो। सव्वं से जाइयं होइ नत्थि किंचि अजाइयं ॥
१४-याचना-परीषह
वास्तव में अनगार भिक्षु की यह चर्या सदा से ही दुष्कर रही है कि उसे वस्त्र, पात्र, आहारादि सब कुछ याचना से मिलता है। उसके पास कुछ भी अयाचित नहीं होता है।
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