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२-परीषह-प्रविभक्ति
२०. सुसाणे सुन्नगारे वा
रुक्ख-मूले व एगओ। अकुक्कुओ निसीएज्जा न य वित्तासए परं ।
१०-निषद्या-परीषह
श्मशान में, सूने घर में और वृक्ष के मूल में एकाकी मुनि अचपल-भाव से बैठे। आस-पास के अन्य किसी प्राणी को कष्ट न दे।
२१. तत्थ से चिट्ठमाणस्स
उवसग्गाभिधारए। संका-भीओ न गच्छेज्जा उद्वित्ता अन्नमासणं ।।
। उक्त स्थानों में बैठे हए यदि कभी कोई उपसर्ग आजाए तो उसे समभाव से धारण करे कि इससे मेरे अजर-अमर आत्मा की कुछ भी क्षति नहीं होने वाली है। अनिष्ट की शंका से भयभीत होकर वहाँ से उठकर अन्य स्थान पर न जाए।
११-शय्या-परीषह
२२. उच्चावयाहिं सेज्जाहिं
तवस्सी भिक्खु थामवं। नाइवेलं विहन्नेजा पावदिट्ठी विहन्नई॥
ऊँची-नीची अर्थात् अच्छी या बुरी शय्या (उपाश्रय) के कारण तपस्वी एवं सक्षम भिक्षु संयम-मर्यादा को भंग न करे, अर्थात् हर्ष शोक न करे। पाप दृष्टिवाला साधु ही हर्ष शोक से अभिभूत होकर मर्यादा को तोड़ता
है।
२३. पइरिक्कुवस्सयं लड़े
फल्लाणं अदु पावर्ग। 'किमेगरायं करिस्सइ' एवं तत्थऽहियासए॥
__ प्रतिरिक्त (स्त्री आदि की बाधा से रहित) एकान्त उपाश्रय पाकर, भले ही वह अच्छा हो या बुरा, उसमें मुनि को समभाव से यह सोच कर रहना चाहिए कि यह एक रात क्या करेगी? अर्थात् इतने-से में क्या बनताबिगड़ता है?
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