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________________ उत्तराध्ययन सूत्र १५. अरइं पिट्ठओ किच्चा विरए आय-रक्खिए। धम्मारामे निरारम्भे उवसन्ते मुणी चरे॥ १६. 'संगो एस मणस्साणं जाओ लोगंमि इथिओ।' जस्स एया परिन्नाया सुकडं तस्स सामण्णं ॥ १७. एवमादाय मेहावी 'पंकभूया उ इथिओ'। नो ताहि विणिहन्नेज्जा चरेज्जऽत्तगवेसए। विषयासक्ति से विरक्त रहने वाला, आत्मभाव की रक्षा करने वाला, धर्म में रमण करने वाला, आरम्भ-प्रवृत्ति से दूर रहने वाला निरारम्भ मुनि अरति का परित्याग कर उपशान्त भाव से विचरण करे। ८-स्त्री-परीषह ‘लोक में जो स्त्रियाँ हैं, वे पुरुषों के लिए बंधन हैं'-ऐसा जो जानता है, उसका श्रामण्य-साधुत्व सुकृत अर्थात् सफल होता है। 'ब्रह्मचारी के लिए स्त्रियाँ पंक–दल दल के समान हैं'-मेधावी मुनि इस बात को समझकर किसी भी तरह संयमी जीवन का विनिघात न होने दे, किन्तु आत्मस्वरूप की खोज करता हुआ विचरण करे। ९-चर्या-परीषह शुद्ध चर्या से लाढ अर्थात् प्रशंसित मुनि एकाकी ही परीषहों को पराजित कर गाँव, नगर, निगम (व्यापार की मंडी) अथवा राजधानी में विचरण करे। भिक्षु गृहस्थादि से असमान अर्थात् विलक्षण-असाधारण होकर विहार करे, परिग्रह संचित न करे, गृहस्थों में असंसक्त-निर्लिप्त रहे । सर्वत्र अनिकेत भाव से अर्थात् गृहबन्धन से मुक्त होकर परिभ्रमण करे। १८. एग एव चरे लाढे अभिभूय परीसहे। गामे वा नगरे वावि निगमे वा रायहाणिए । १९. असमाणो चरे भिक्खू नेव कुज्जा परिग्गह। असंसत्तो गिहत्थेहिं अणिएओ परिव्वए। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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