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________________ २-परीषह-प्रविभक्ति १०. पुट्ठो य दंस-मसएहिं समरेव महामुणी। नागो संगाम-सीसे वा सूरो अभिहणे परं॥ ११. न संतसे न वारेज्जा मणं पि न पओसए। उवेहे न हणे पाणे भुंजन्ते मंस-सोणियं ।। १२. 'परिजुण्णेहि वत्थेहि होक्खामि त्ति अचेलए। अदुवा 'सचेलए होक्खं' इइ भिक्खू न चिन्तए। ५-दंश-मशक-परीषह महामुनि डांस तथा मच्छरों का उपद्रव होने पर भी समभाव रखे। जैसे युद्ध के मोर्चे पर हाथी बाणों की कुछ भी परवाह न करता हुआ शत्रुओं का हनन करता है, वैसे ही मुनि भी परीषहों की कुछ भी परवाह न करते हुए राग-द्वेष रूपी अन्तरंग शत्रुओं का हनन करे। दंशमशक परीषह का विजेता साधक दंश-मशकों से संत्रस्त (उद्विग्न) न हो, उन्हें हटाए नहीं। यहाँ तक कि उनके प्रति मन में भी द्वेष न लाए । मांस काटने तथा रक्त पीने पर भी उपेक्षा भाव रखे, उनको मारे नहीं। ६-अचेल-परीषह “वस्त्रों के अति जीर्ण हो जाने से अब मैं अचेलक (नग्न) हो जाऊँगा। अथवा नए वस्त्र मिलने पर मैं फिर सचेलक हो जाऊँगा"-मुनि ऐसा न सोचे। _ “विभिन्न एवं विशिष्ट परिस्थितियों के कारण मुनि कभी अचेलक होता है, कभी सचेलक भी होता है। दोनों ही स्थितियाँ यथाप्रसंग संयम धर्म के लिए हितकारी हैं"-ऐसा समझकर मुनि खेद न करे। ७-अरति-परीषह एक गांव से दूसरे गांव विचरण करते हुए अकिंचन (निर्ग्रन्थ) अनगार के मन में यदि कभी संयम के प्रति अरति-अरुचि, उत्पन्न हो जाए तो उस परीषह को सहन करे। १३. 'एगयाऽचेलए होड सचेले यावि एगया। एयं धम्महियं नच्चा नाणी नो परिदेवए॥ १४. गामाणुगामं रीयन्तं अणगारं अकिंचणं। अरई अणुप्पविसे तं तितिक्खे परीसहं॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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