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________________ 246 १८ ८. चरन्तं विरयं सीयं नाइवेलं सोच्चाणं जिण-सासणं ॥ लहं एगया । फुसइ मुणी मुणी गच्छे 'न मे निवारणं अत्थि छवित्ताणं न विज्जई । अहं तु अग्गिं सेवामि'इइ भिक्खू न चिन्तए । तज्जिए । उसिण- परियावेणं परिदाहेण घिसु वा परियावेणं सायं नो परिदेवए ॥ उहाहित मेहावी सिणाणं नो वि पत्थए । गायं नो परिसिंचेज्जा न वीएज्जा य अप्पयं ॥ Jain Education International उत्तराध्ययन सूत्र ३ - शीत- परीषह विरक्त और अनासक्त (अथवा स्निग्ध भोजनादि के अभाव से रूक्ष - शरीर) होकर विचरण करते हुए मुनि को शीतकाल में शीत का कष्ट होता ही है, फिर भी आत्मजयी जिन - शासन ( वीतराग भगवान् की शिक्षाओं) को समझकर अपनी यथोचित मर्यादाओं का या स्वाध्यायादि के प्राप्त काल का उल्लंघन न करे । शीत लगने पर मुनि ऐसा न सोचे कि " मेरे पास शीत-निवारण के योग्य मकान आदि का कोई अच्छा साधन नहीं है । शरीर को ठण्ड से बचाने के लिए छवित्राण - कम्बल आदि वस्त्र भी नहीं हैं, तो मैं क्यों न अग्नि का सेवन करलूँ ।” ४- उष्ण - परीषह गरम भूमि, शिला एवं लू आदि के परिताप से, प्यास की दाह से, ग्रीष्मकालीन सूर्य के परिताप से अत्यन्त पीड़ित होने पर भी मुनि सात (ठंडक आदि के सुख) के लिए परिदेवना -आकुलता न करे । गरमी से परेशान होने पर भी मेधावी मुनि स्नान की इच्छा न करे । जल से शरीर को सिंचित - गीला न करे, पंखे आदि से हवा न करे 1 For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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