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२ - परीषह - प्रविभक्ति
१. परीसहाणं कासवेणं
२. दिगिंछा-परिगए देहे तवस्सी भिक्खु थामवं । न छिन्दे, न छिन्दावए
न पए, न पयावए ।
३.
पविभत्ती
पवेड्या |
तं भे उदाहरिस्सामि आणुपुव्विं सुणेह मे ॥
४.
काली - पव्वंग-संकासे किसे धमणि-संतए । मायने असण- पाणस्स अदीण - मणसो
चरे ॥
तओ पुट्ठो पिवासाए दोगंछी लज्ज - संजए । सीओदगं न सेविज्जा वियडस्सेसणं चरे ॥
छिन्नावासु पन्थे आउरे सुपिवासिए । परिसुक्क मुहेऽदीणे तं तितिक्खे परीसहं ॥
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कश्यप गोत्रीय भगवान् महावीर ने परीषहों के जो भेद (प्रविभक्ति) बताए हैं, उन्हें मैं तुम्हें कहता हूँ । मुझसे तुम अनुक्रम से सुनो।
१ - क्षुधा - परीषह
से
बहुत भूख लगने पर भी मनोबल युक्त तपस्वी भिक्षु फल आदि का न स्वयं छेदन करे, न दूसरों से छेदन कराए, उन्हें न स्वयं पकाए और न दूसरों से पकवाए ।
लंबी भूख के कारण काकजंघा (तृण- विशेष) के समान शरीर दुर्बल हो जाए, कृश हो जाए, धमनियाँ स्पष्ट नजर आने लगें, तो भी अशन एवं पानरूप आहार की मात्रा को जानने वाला भिक्षु अदीनभाव से विचरण करे |
२ - पिपासा - परीषह
असंयम से अरुचि रखने वाला, लज्जावान् संयमी भिक्षु प्यास से पीड़ित होने पर भी शीतोदक- सचित्त जल का सेवन न करे, किन्तु अचित्त जल की खोज करे ।
यातायात से शून्य एकांत निर्जन मार्गों में भी तीव्र प्यास से आतुर - व्याकुल होने पर, यहाँ तक कि मुँह के सूख जाने पर भी मुनि अदीनभाव से प्यास के कष्ट को सहन करे ।
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