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उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण परिभावना करना। अर्थात् यह चिन्तन करना कि शब्दादि पाप के हेतु नहीं हैं, वस्तुत: रागादि ही हेतु हैं।
अध्याय ३३ गाथा ३-समास का अर्थ संक्षेप है। संक्षेप से आठ कर्म हैं, इसका अभिप्राय है कि वैसे तो जितने प्राणी हैं उतने ही कर्म हैं, अर्थात् कर्म अनन्त हैं। यहाँ विशेष स्वरूप की विवक्षा से आठ भेद हैं।
गोत्र का अर्थ है-'कुलक्रमागत आचरण ।' उच्च आचरण उच्च गोत्र है, और नीच आचरण नीच गोत्र । अतएव गोम्मटसार कर्मकाण्ड, गाथा १३ में कहा है-'उच्चनीयं चरणं, उच्चं नीयं हवे गोदं ।'
गाथा ६-सुखप्रतिबोधा निद्रा है। दुःखप्रतिबोधात्मिका अतिशायिनी निद्रा-निद्रा है। बैठे-बैठे सो जाना प्रचला निद्रा है-'प्रचलत्यस्यामासीनोऽपि। चलते हुए भी सो जाना प्रचला-प्रचला है। 'प्रचलैवातिशायिनी चडक्रम्यमाणस्य प्रचला-प्रचला।'
'स्त्यानर्द्धि' का अर्थ है-जिसमें सबसे अधिक ऋद्धि अर्थात् गृद्धि का स्त्यान है, उपचय है, वह निद्रा । वासुदेव का आधा बल आ जाता है, इसमें । प्रबल रागद्वेष वाला प्राणी इस निद्रा में बड़े-बड़े असंभव जैसे कर्म कर लेता है और उसे भान ही नहीं होता कि मैंने क्या किया है ?
गाथा ७–'स्वाद्यते इति सातम्'-इस नियुक्ति से स्वादु अर्थ में 'सात' शब्द निष्पन्न हआ है। सात का अर्थ है-शारीरिक और मानसिक सुख। 'सातं सुखं शारीरं मानसं च-सर्वार्थसिद्धिवृत्ति । तद्विपरीत असात है, दुःख
गाथा ९-'सम्यक्त्व मोहनीय कर्म' शुद्धदलिकरूप है, अत: उसके उदय में भी तत्त्वरुचिरूप सम्यक्त्व हो जाता है। पर, उसमें शंका आदि अतिचारों की मलिनता बनी रहती है। मित्थात्व अशुद्धदलिकरूप है, उसके कारण तत्त्व में अतत्त्वरुचि और अतत्त्व में तत्त्वरुचि होती है। सम्यग्मिथ्यात्व के दलिक शुद्धाशुद्ध अर्थात् मिश्र हैं।
गाथा १०-'नोकषाय' में प्रयुक्त 'नो' का अर्थ 'सदृश' है। जो कषाय के समान है, कषाय के सहवतीं हैं, वे हास्य, रति, अरति आदि नोकषाय हैं।
गाथा ११-एक बार भोग में आने वाले पुष्प, आहार आदि भोग हैं। बार-बार भोग में आने वाले वस्त्र, अलंकार, मकान आदि उपभोग हैं।
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