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३२-अध्ययन
४७१ बैठना और सोना। ३२. गुरुदेव के आसन से ऊँचे आसन पर खड़े होना, बैठना और सोना। ३३. गुरुदेव के आसन के बराबर आसन पर खड़े होना, बैठना और सोना।
उक्त बोलों में से कुछ बोलों के आगम तथा टीकाओं में अन्य प्रकार भी हैं। उपाध्याय श्री अमरमुनि जी द्वारा सम्पादित श्रमण सूत्र में विस्तार से वर्णन है। एक से लेकर तेंतीस तक के बोल यथास्वरूप श्रद्धान, आचरण तथा वर्जन के योग्य हैं।
अध्ययन ३२ गाथा १-अत्यन्त काल का शब्दश: अर्थ है, वह काल जिसका अन्त न हो। 'अन्त' का अर्थ है—छोर, किनारा, समाप्ति । वस्तु के दो छोर होते हैं-आरम्भ और अन्त । यहाँ आरम्भ, अर्थ ग्राह्य है । अर्थात् वह अतीत जिसका आरम्भ नहीं है, आदि नहीं है, अनादि।
गाथा २-गुरु का अर्थ है-शास्त्र का यथार्थवेत्ता। वृद्ध के तीन प्रकार हैं-श्रुत वृद्ध, पर्याय-दीक्षा वृद्ध, और वयोवृद्ध।
गाथा २३–प्रस्तुत में दो बार ‘ग्रहण' शब्द का प्रयोग है। प्रथम कर्ता अर्थ में है-'गृह्यतीति ग्रहणम्-अर्थात् ग्राहक । दूसरा ग्राह्य (विषय) अर्थ में है'गृह्यते इति ग्राह्यम्।' इन्द्रिय और उसके विषय में ग्राह्य-ग्राहक भाव अर्थात् उपकार्योषकारक भाव है । रूप ग्राह्य है, चक्षु उसका ग्राहक है, जानने वाला है।
गाथा ३७–'हरिणमृग' में पुनरुक्ति नहीं है। मृग के मृग शीर्ष नक्षत्र, हाथी की एक जाति, पशु और हरिण आदि अनेक अर्थ हैं । यहाँ मृग का अर्थ 'पशु' है।
गाथा ५०-टीकाकारों ने यहाँ औषधि' से नागदमनी आदि औषधि ग्रहण की है। . गाथा ८७–मन का ग्राह्य भाव है । वह यहाँ अतीत भोगों की स्मृतिरूप है, और भविष्य के भोगों की कल्पना अर्थात् इच्छारूप है। भाव अर्थात् विचार इन्द्रियों का विषय नहीं है, इसलिए उसका पृथक् उपादान है-'इन्द्रिया-विषयत्वात्सर्वार्थसिद्धि वृत्ति।
गाथा ८९-वन के हाथी को पहले की पकड़ी हुई शिक्षित हथिनी के द्वारा पकड़ा जाता है। प्रश्न है—हथिनी को देखकर कामासक्त होना, यह तो चक्षु इन्द्रिय
और रूप से सम्बन्धित है। उसका भाव में कैसे ग्रहण है ? यहाँ मन की प्रधानता है । रूपदर्शन के पश्चात् कामवासना जो होती है, उसमें चक्षु इन्द्रिय का व्यापार नहीं है, मन की ही प्रवृत्ति है।
गाथा १०७-'संकल्प' में आए 'कल्प' का अर्थ राग-द्वेष-मोह रूप अध्यवसाय है। विकल्पना का अर्थ है-उन के सम्बन्ध में सर्वदोषमूलत्वादि की
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