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उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण
तेतीसा आशातना
१. मार्ग में रत्नाधिक (अपने से दीक्षा में बड़े) से आगे चलना। २. मार्ग में रत्नाधिक के बराबर चलना। ३. मार्ग में रत्नाधिक के पीछे अड़कर चलना। (४-६) रत्नाधिक के आगे, बराबर में तथा पीछे अड़कर खड़े होना। (७-९) रत्नाधिक के आगे, बराबर में तथा पीछे अड़कर बैठना। १०. रत्नाधिक और शिष्य विचार-भूमि (शौचार्थ जंगल) में गए हों, वहाँ रत्नाधिक से पूर्व आचमन-शौचशुद्धि करना। ११. बाहर से उपाश्रय में लौटने पर रत्नाधिक से पहले ईर्यापथ की आलोचना करना। १२. रात्रि में रत्नाधिक की ओर से 'कौन जागता है?' पूछने पर जागते हुए भी उत्तर न देना। १३. जिस व्यक्ति से, रत्नाधिक को पहले बात-चीत करनी चाहिए, उससे पहले स्वयं ही बात-चीत करना। १४. आहार आदि की आलोचना प्रथम दूसरे साधुओं के समक्ष करने के बाद रत्नाधिक के संमुख करना । १५. आहार आदि प्रथम दूसरे साधुओं को दिखला कर बाद में रत्नाधिक को दिखलाना। १६. आहार आदि के लिए प्रथम दूसरे साधुओं को निमंत्रित कर बाद में रत्नाधिक को निमंत्रण देना। १७. रत्नाधिक को बिना पूछे दूसरे साधु को उसकी इच्छानुसार प्रचुर आगर देना। १८. रत्नाधिक के साथ आहार करते समय सुस्वादु आहार स्वयं खा लेना, अथवा साधारण आहार भी शीघ्रता से अधिक खा लेना। १९. रत्नाधिक के बुलाये जाने पर सुना-अनसुना कर देना। २०. रत्नाधिक के प्रति या उनके समक्ष कठोर अथवा मर्यादा से अधिक बोलना। २१. रत्नाधिक के द्वारा बुलाये जाने पर शिष्य को उत्तर में 'मत्थएण बंदामि' कहना चाहिए। ऐसा न कह कर ‘क्या कहते हो' इन अभद्र शब्दों में उत्तर देना । २२. रत्नाधिक के द्वारा बुलाने पर शिष्य को उनके समीप आकर बात सुननी चाहिए। ऐसा न करके आसन पर बैठे ही बैठे बात सुनना और उत्तर देना। २३. गुरुदेव की प्रति 'तू' का प्रयोग करना । २४. गुरुदेव किसी कार्य के लिए आज्ञा दें तो उसे स्वीकार न करके उल्टा उन्हीं से कहना कि 'आप ही कर लें।' २५. गुरुदेव के धर्मकथा कहने पर ध्यान से सुनना और
अन्यमनस्क रहना, प्रवचन की प्रशंसा न करना। २६. रत्नाधिक धर्मकथा करते हों तो बीच में ही रोकना कि-'आप भूल गए। यह ऐसे नहीं, ऐसे हैं। २७. रत्नाधिक धर्मकथा कर रहे हों, उस समय किसी उपाय से कथा भंग करना
और स्वयं कथा कहने लगना। २८. रत्नाधिक धर्मकथा करते हों उस समय परिषद् का भेदन करना और कहना कि-'कब तक कहोगे, भिक्षा का समय हो गया है।' २९. रलाधिक धर्म-कथा कर चुके हों और जनता अभी बिखरी न हो तो उस सभा में गुरुदेव कथित धर्मकथा का ही अन्य व्याख्यान करना और कहना कि, 'इसके ये भाव और होते हैं।' ३०. गुरुदेव के शय्या-संस्तारक को पैर से छूकर क्षमा माँगे बिना ही चले जाना। ३१. गुरुदेव के शय्या-संस्तारक पर खड़े होना,
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