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________________ ४५२ उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण षोडशपदात्मक तप को चतुष्टयात्मक श्रेणि से गुणा करने पर अर्थात् प्रतर तप को चार बार करने से घनतप होता है। इस प्रकार घनतप के ६४ पद होते हैं। . (४) वर्ग तप-घन को घन से गुणित करने पर वर्ग तप बनता है। अर्थात् घनतप को ६४ बार करने से वर्गतप बनता है। इस प्रकार वर्गतप के ६४ + ६४ = ४०९६ पद होते हैं । अर्थात् चार हजार छियाणवें पद हैं। (५) वर्गवर्गतप-वर्ग को वर्ग से गुणित करने पर वर्गवर्ग तप होता है। अर्थात् वर्गतप को ४०९६ बार करने से १ करोड ६७ लाख, ७७ हजार और २१६ पद होते हैं। उक्त पद अंकों में इस प्रकार हैं-४०९६ x ४०९६ = १६७७७२१६। यह श्रेणितप के चार पदों की भावना है । इसी प्रकार पाँच, छह, सात आदि पदों की भावना भी की जा सकती है। (६) प्रकीर्ण तप-यह तप श्रेणि आदि निश्चित पदों की रचना किए बिना ही अपनी शक्ति और इच्छा के अनुसार किया जा सकता है। नमस्कारसंहिता अर्थात् नौकारसी से लेकर यवमध्य, वज्रमध्य, चन्द्रप्रतिमा (चन्द्र की कलाओं के अनुसार उपवासों की संख्या १ से लेकर १५ तक बढ़ाना और फिर क्रमश: घटाते हुए १ उपवास पर आजाना) आदि प्रकीर्ण तप हैं। गाथा १२-मरण काल का आमरणान्त अनशन संथारा कहा जाता है। वह सविचार और अविचार-भेद से दो प्रकार का है। सविचार में उद्वर्तन-परिवर्तन (करवट बदलने) आदि की हरकत होती है, अविचार में नहीं। भक्त प्रत्याख्यान और इङ्गिनीमरण सविचार होते हैं । भक्त प्रत्याख्यान स्वयं भी करवट आदि बदल सकता है, दूसरों से भी इस प्रकार की सेवा ले सकता है। यह संथारा दूसरे भिक्षुओं के साथ रहते हुए भी हो सकता है। यह इच्छानुसार त्रिविधाहार अथवा चतुर्विधाहार के प्रत्याख्यान से किया जा सकता है। इङ्गिनीमरण संथारा में अनशनकारी एकान्त में एकाकी रहता है। यथाशक्ति स्वयं को करवट आदि की क्रियाएँ कर सकता है, किन्तु इसके लिए दूसरों से सेवा नहीं ले सकता। गिरिकन्दरा आदि शून्य स्थानों में किया जाने वाला पादपोपगमन अविचार ही होता है। जैसे वृक्ष जिस स्थिति में गिर जाता है, उसी स्थिति में पड़ा रहता है, उसी प्रकार पादपोपगमन में भी प्रारंभ में जिस आसन का उपयोग करता है अन्त तक उसी आसन में रहता है, आसन आदि बदलने की कोई भी चेष्टा नहीं करता है। पादपोपगमन के लिए दिगम्बर परम्परा में 'प्रायोपगमन' शब्द का प्रयोग हुआ है। 'पाओअगमण' प्राकृत शब्द से दोनों ही संस्कृत रूप हो सकते हैं। गाथा १३-अथवा यह-मरणकालीन अनशन सपरिकर्म (बैठना, उठना, करवट बदलना आदि परिकर्म से सहित) और अपरिकर्म भेद से दो प्रकार का है। भक्त प्रत्याखान और इंगिनी सपरिकर्म होते हैं, और पादपोपगमन अपरिकर्म ही होता है। अथवा संलेखना के परिकर्म से सहित और उससे रहित को भी क्रमश: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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