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३०-अध्ययन
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सपरिकर्म और अपरिकर्म कहा जाता है। वर्ष आदि पूर्व काल से ही अनशनादि तप करते हुए शरीर को, साथ ही इच्छाओं, कषायों और विकारों को निरन्तर क्षीण करना संलेखना है, अन्तिम मरणकालीन क्षण की पहले से ही तैयारी करना है। ___ गाँव से बाहर जाकर जो संथारा किया जाता है, वह निर्दारिम है, और जो गाँव में ही किया जाता है वह अनि रिम है। अथवा जिसके शरीर का मरणोत्तर अग्निसंस्कार आदि होता है, वह निर्हारिम है। और जो गिरिकन्दरा आदि शून्य स्थानों में संथारा किया जाता है, फलत: जिसका अग्निसंस्कार आदि नहीं होता है, वह अनि रिम है। वास्तविकता क्या है, इसके लिए सर्वार्थ सिद्धिकार कहता है-'परमार्थं तु बहुश्रुता विदन्ति।'
गाथा १६-१७-१८-जहाँ कर लगते हों वह ग्राम है। और जहाँ कर न लगते हों, वह नगर है, अर्थात् न कर। निगम-व्यापार की मण्डी। आकरसोने आदि की खान । पल्ली-वन में साधारण लोगों की या चोरों की बस्ती । खेट-धूल मिट्टी के कोट वाला ग्राम । कर्वट-छोटा नगर । द्रोण-मुख-जिसके आने जाने के जल और स्थल दोनों मार्ग हों । पत्तन-जहाँ सभी ओर से लोग आते हों। मडंब-जिसके पास सब ओर अढाई योजन तक कोई दूसरा गाम न हो। सम्बाध-ब्राह्मण आदि चारों वर्ण के लोगों का जहाँ प्रचुरता से निवास हो । आश्रमपद-तापस आदि के आश्रम । विहार-देवमन्दिर । संनिवेश-यात्री लोगों के ठहरने का स्थान, अर्थात् पडाव । समाज-सभा और परिषद् । घोष-गोकुल। स्थली-ऊँची जगह टीला आदि । सेना और स्कन्धावार (छावनी) प्रसिद्ध है। सार्थ-सार्थवाहों के साथ चलने वाला जनसमूह । संवर्त–जहाँ के लोग भयत्रस्त हों। कोट्ट-प्राकार, किला आदि। वाट-जिन घरों के चारों ओर काँटों की बाड या तार आदि का घेरा हो । रथ्या-गाँव और नगर की गलियाँ।
क्षेत्रअवमौदर्य का अर्थ है-विहार-भ्रमण आदि की दृष्टि से क्षेत्र की सीमा कम कर लेना।
गाथा १९–(१) पेटा-अर्थात् पेटिका चतुष्कोण होती है। इस प्रकार बीच के घरों को छोड़कर चारों श्रेणियों में भिक्षा लेना।
(२) अर्धपेटा—इसमें केवल दो श्रेणियों से भिक्षा ली जाती है।
(३) गोमूत्रिका वक्र अर्थात् टेढ़े-मेढ़े भ्रमण से भिक्षा लेना गोमूत्रिका है। जैसे चलते बैल के मूत्र की रेखा टेढ़ी-मेढ़ी होती है।
(४) पतंगवीथिका-पतंग जैसे उड़ता हुआ बीच में कहीं-कहीं चमकता है, इसी प्रकार बीच-बीच में घरों को छोड़ते हुए भिक्षा लेना।
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