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________________ ४५० उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण गाथा २३ - अनुप्रेक्षा का अर्थ सूत्रार्थ का चिन्तन है । यह भी तप है। अतः उक्त तप से प्रगाढ बन्धन रूप निकाचित कर्म भी शिथिल अर्थात् क्षीण हो जाते हैं । 'तपोरूपत्वादस्यास्तपसश्च निकाचितकर्मक्षयक्षमत्वात् ' - सर्वार्थसिद्धि । सूत्र ७१ - कषाय भाव में ही कर्म का स्थितिबन्ध होता है। केवल मन, वचन, काय के कषायरहित व्यापार-रूप योग से तो दीवार पर लगे सूखे गोले की तरह ज्योंही कर्म लगता है, लगते ही झड़ जाता है । उसमें राग द्वेषजन्य स्निग्धता जो नहीं है । केवल ज्ञानी को भी जब तक वह सयोगी रहता है, चलते-फिरते, उठते-बैठते हर क्षण योगनिमित्तक दो समय की स्थिति का सुखस्पर्शरूप कर्म बँधता रहता है। अयोगी होने पर वह भी नहीं । सूत्र ७२ - अ इ उ ऋ लृ – ये पाँच ह्रस्व अक्षर हैं। इतना काल १४ वें अयोगी गुण स्थान की भूमिका का होता है । तदनन्तर आत्मा देहमुक्त होकर सिद्ध हो जाता है । 'समुच्छिन्नक्रिया अनिवृत्ति' शुक्ल ध्यान का अर्थ है - समुच्छिन्न क्रिया वाला एवं पूर्ण कर्म क्षय करने से पहले निवृत्त नहीं होने वाला पूर्ण निर्मल शुक्ल ध्यान । यह शैलेशी - अर्थात् शैलेश मेरु पर्वत के समान सर्वथा अकम्प, अचल आत्मस्थिति है । मुक्त आत्मा का ऊर्ध्वगमन आकाशप्रदेशों की ऋजु अर्थात् सरल समश्रेणि से होता है । समश्रेणि को काटता हुआ विषम श्रेणि से नहीं होता। यही अनुश्रेणी गत भी कहलाती है । अस्पृशद् गति के अनेक अर्थ हैं । बृहद्वृत्तिकार शान्त्याचार्य के अनुसार अर्थ है- “जितने आकाश प्रदेशों को जीव यहाँ अवगाहित किए रहता है, उतने ही प्रदेशों को स्पर्श करता हुआ गति करता है, उसके अतिरिक्त एक भी आकाश प्रदेश को नहीं छूता है। अस्पृशद् गति का यह अर्थ नहीं कि मुक्त आत्मा आकाश प्रदेशों को स्पर्श ही नहीं करता । आचार्य अभय देव के (औपपातिक वृत्ति) अनुसार अस्पृशद्गति का अर्थ है - " अन्तरालवर्ती आकाश प्रदेशों का स्पर्श किए बिना यहाँ से ऊर्ध्व मोक्ष स्थान तक पहुँचना ।” उनका कहना है कि मुक्त जीव आकाश के प्रदेशों का स्पर्श किए बिना ही ऊपर चला जाता है। यदि वह अन्तरालवर्ती आकाश प्रदेशों को स्पर्श करता जाए तो एक समय जैसे अल्पकाल में मोक्ष तक कैसे पहुँच सकता है ? नहीं पहुँच सकता । आवश्यक चूर्णि के अनुसार अस्पृशद्गति का अर्थ है - मुक्त जीव एक समय में ही मोक्ष में पहुँच जाता है। वह अपने ऊर्ध्व गमन काल में दूसरे समय को स्पर्श नहीं करता । मुक्तात्मा की यह समश्रेणिरूप सहज गति है । इसमें मोड़ नहीं लेना होता । अतः दूसरे समय की अपेक्षा नहीं है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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