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सेवा वाले इसी प्रकार तप करते हैं, और तपस्वी सेवा। तीसरे छह मास में वाचनाचार्य तप करता है । और उनमें से एक वाचनाचार्य हो जाता है, शेष सेवा करने वाले रहते हैं ।
(४-५) सूक्ष्मसंपरायः यथाख्यात — सामायिक या छेदोपस्थापनीय चारित्र की साधना करते-करते जब क्रोध, मान, माया उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, एकमात्र लोभ का ही बहुत सूक्ष्म वेदन रह जाता है, तब दसवें गुणस्थान में सूक्ष्म संपराय चारित्र होता है । और जब चारों ही कषाय पूर्णरूप से उपशान्त या क्षीण हो जाते हैं, तब वह यथाख्यात चारित्र होता है । यह वीतराग चारित्र है । उपशान्त यथाख्यात चारित्र ११ वें गुण स्थान में और क्षायिक यथाख्यात १२ वें आदि अग्रिम गुण स्थानों में होता है ।
अध्ययन २९
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सूत्र ७ - प्रस्तुत में 'करणगुणश्रेणि' शब्द एक गम्भीर सैद्धान्तिक शब्द है अपूर्वकरण से होने वाली गुणहेतुक कर्मनिर्जरा की श्रेणि को 'करण गुण श्रेणि' कहते हैं । करण का अर्थ आत्मा का विशुद्ध परिणाम है । अध्यात्म-विकास की आठवीं भूमिका का नाम अपूर्वकरण गुण स्थान है। यहाँ परिणामों की धारा इतनी विशुद्ध होती है, जो पहले कभी नहीं होने के कारण अपूर्व कहलाती है। आगामी क्षणों में उदित होने वाले मोहनीय कर्म के अनन्त प्रदेशी दलिकों को उदयकालीन प्राथमिक क्षण में लाकर क्षय कर देना, भाव विशुद्धि की एक आध्यात्मिक प्रक्रिया है। प्रथम समय से दूसरे क्षण में असंख्यात गुण अधिक कर्मपुद्गलों का क्षय होता है, दूसरे से तीसरे में असंख्यात गुण अधिक और तीसरे से चौथे में असंख्यात गुण अधिक। इस प्रकार कर्मनिर्जरा की यह तीव्रगति प्रत्येक समय से अगले समय में असंख्यात गुण अधिक होती जाती है, और यह कर्मनिर्जरा की धारा असंख्यात समयात्मक एक मुहूर्त तक चलती है। देखिए, कर्मनिर्जरा की और आत्मविशुद्धि की कितनी अपूर्व एवं दिव्य धारा है। इसे क्षपक श्रेणी भी कहते हैं । 'प्रक्रमात् क्षपक श्रेणि: ' - सर्वार्थसिद्धि । क्षपक श्रेणी आठवें गुण स्थान से प्रारम्भ होती है । मोहनाश की दो प्रक्रियाएँ हैं । जिससे मोह का क्रम से उपशम होते-होते अन्त में वह सर्वथा उपशान्त हो जाता है, अन्तर्मुहूर्त के लिए उसका उदय में आना बंद हो जाता है, उसे उपशम श्रेणि कहते हैं। और जिसमें मोह क्षीण होते-होते अन्त में सर्वथा क्षीण हो जाता है, मोह का एक दलिक भी आत्मा पर शेष नहीं रहता, वह क्षपकश्रेणि है । क्षपक श्रेणी से ही कैवल्य प्राप्त होता है । सूत्र १५ – एक, दो या तीन श्लोक से होने वाली गुणकीर्तना स्तुति होती है और तीन से अधिक श्लोकों वाली स्तुति को स्तव कहते हैं। वैसे दोनों का भावार्थ एक ही है- भक्तिपूर्वक गुणकीर्तन ।
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