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उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण
से पूर्व निश्चय में अज्ञान ही रहता है । सम्यग् दर्शन होने पर ही ज्ञान सम्यग्ज्ञान होता है । इसीलिए प्रस्तुत अध्ययन के उपसंहार (गा० ३०) में 'नादंसणिस्स नाणं' कहा है।
यहाँ दर्शन से सम्यग्दर्शन अभिप्रेत है, सामान्य बोधरूप चक्षु-अचक्षु आदि दर्शन नहीं । तप भी चारित्र का ही एक रूप है। पृथक् उपादान कर्मक्षपण के प्रति असाधारण हेतुता को लेकर किया है । उपसंहार (गा० ३०) में इसीलिए चरणगुण कहा है, तप का पृथक् उल्लेख नहीं किया है। आचार्य उमास्वाति के तत्त्वार्थ सूत्र में भी 'सम्यग् दर्शन - ज्ञान - चारित्राणि मोक्ष मार्ग :- सूत्र ही उपनिबद्ध है ।
सम्यग् ज्ञान आदि तीनों या चारों में समुदित रूप से मोक्ष की कारणता है, पृथक्-पृथक् कारणता नहीं है । अतः 'एय मग्गमणुपत्ता' में मार्ग के लिए एक वचन प्रयुक्त है।
गाथा ४- - प्रस्तुत में श्रुत ज्ञान का पहले उल्लेख है । टीकाकारों की दृष्टि में यह इसलिए है कि मति आदि अन्य सभी ज्ञानों का स्वरूपज्ञान श्रुतज्ञान से होता । अतः व्यवहार में श्रुत की प्रधानता है ।
यहाँ श्रुत से अक्षररूप द्रव्यश्रुत का ग्रहण नहीं है। ज्ञान का निरूपण होने से भावश्रुत ही ग्राह्य है 1
‘आभिनिबोधिक' मति ज्ञान का ही दूसरा नाम है । इन्द्रिय और मन का अपने-अपने शब्दादि विषयों का बोध अभिमुखतारूप से नियत होने के कारण इसे आभिनिबोधिक ज्ञान कहते हैं ।
मति और श्रुत अन्योऽन्याश्रित हैं । नन्दी सूत्र में कहा है— जहाँ मति है वहाँ श्रुत है और जहाँ श्रुत है वहाँ मति है । वैसे श्रुत मतिपूर्वक ही होता है ।
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मति में पाँच इन्द्रिय और छठा मन निमित्त है, जबकि श्रुत में मन ही निमित्त होता है - 'श्रुतमनिन्दियस्य' - तत्त्वार्थ सूत्र, २-२१
‘अवधि ज्ञान' अव अर्थात् अधोऽध: ( नीचे की ओर) अधिक विस्तृत होता है, अत: वह शब्दव्युत्पति से अवधि कहलाता है । 'अव' मर्यादा अर्थ में भी है। इसके मुख्य रूप से भवप्रत्ययिक (जो देव, नारकों को जन्म से ही गतिनिमित्तक होता है) और क्षायोपशमिक (मनुष्य और तिर्यञ्चों को जो वर्तमान जन्मकालीन साधना के निमित्त से होता है) ये दो भेद हैं । अन्तरंग में अवधिज्ञानावरण कर्म का क्षयोपशम दोनों में अपेक्षित हैं ।
प्रस्तुत में 'मननाणं' में के मन से मनोद्रव्य के पर्याय अपेक्षित हैं । मनोद्रव्य के पर्यायरूप विचित्र परिणमनों का ज्ञान मन: पर्याय ज्ञान है ।
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