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अध्ययन १०
गाथा २७ – चरक संहिता (३० । ६८) के अनुसार 'अरति' का एक अर्थ पित्त रोग भी है। प्रस्तुत में शरीर के रोगों का ही वर्णन है, अतः यह अर्थ भी प्रकरण संगत लगता है 1
उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण
गाथा ३५–‘कलेवर' का अर्थ शरीर है। मुक्त आत्माएँ शरीररहित होने से अकलेवर हैं । अकलेवरत्व स्थिति को प्राप्त कराने वाली विशुद्ध भावश्रेणी को क्षपक श्रेणी कहते हैं । क्षपक अर्थात् कर्मों का मूल से क्षय करने वाली आन्तरिक विशुद्ध विचारश्रेणी अर्थात् भावविशुद्धि की धारा ।
अध्ययन ११
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गाथा २१ – बृहद्वृत्ति के अनुसार वासुदेव के शंख का नाम पाञ्चजन्य, चक्र का सुदर्शन और गदा का नाम कौमोदकी है। लोहे के दण्डविशेष को गदा कहते हैं ।
गाथा २२ - जिसके राज्य के उत्तर दिगन्त में हिमवान् पर्वत और शेष तीन दिगन्तों में समुद्र हो, वह 'चातुरन्त' कहलाता है ।
चक्रवर्ती के १४ रन इस प्रकार हैं - ( १ ) सेनापति, (२) गाथापति, (३) पुरोहित, (४) गज, (५) अश्व, (६) मनचाहा भवन का निर्माण करने वाला वर्द्धकि अर्थात् बढ़ई, (७) स्त्री, (८) चक्र, (९) छत्र, (१०) चर्म, (११) मणि, (१२) जिससे पर्वत शिलाओं पर लेख या मण्डल अंकित किए जाते हैं, वह काकिणी, (१३) खड्ग और (१४) दण्ड ।
गाथा २३ – इन्द्र के सहस्राक्ष और पुरन्दर नाम वैदिक पुराणों के कथानकों पर आधारित हैं । बृहद् वृत्तिकार ने 'पुरन्दर' के लिए तो लोकोक्ति शब्द का प्रयोग किया ही है । चूर्णि में सहस्राक्ष का प्रथम अर्थ किया है— 'इन्द्र के पाँच सौ देवं मन्त्री' होते हैं । राजा मन्त्री की आँखों से देखता है, अर्थात् उनकी दृष्टि से अपनी नीति निर्धारित करता है, इसलिए इन्द्र सहस्राक्ष है । दूसरा अर्थ अधिक अर्थसंगत है । जितना हजार आँखों से दीखता है, इन्द्र उससे अधिक अपनी दो आँखों से देख लेता है, इसलिए वह सहस्राक्ष है । 'जं सहस्सेण अक्खाणं दीसति, तं सो दोहिं अक्खीहिं अब्भहियतरागं पेच्छति' - चूर्णि । उक्त अर्थ वैसे ही अलंकारिक है, जैसेकि चतुष्कर्ण अर्थात् चौकन्ना शब्द अधिक सावधान रहने के अर्थ में प्रयुक्त होता है ।
अध्ययन १२
गाथा १ - सामान्यतः श्वपाक का अर्थ चाण्डाल लिया जाता है । किन्तु यह एक अत्यन्त निम्न श्रेणी की नीच जाति थी। चूर्णि के अनुसार इस जाति में कुत्ते
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