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________________ १०-अध्ययन ४३३ का मांस पकाया जाता था। श्वेन पचतीति श्वपाकः ।' श्वपाक की तुलना वाल्मीकि रामायण (१ । ५९ । १९-२१) में वर्णित मुष्टिक लोगों से होती है। ये श्वमांसभक्षी, मुर्दे के वस्त्रों का उपयोग करने वाले, बीभत्स आकार वाले एवं दुराचारी होते थे। गाथा ११-यज्ञ का भोजन केवल ब्राह्मणों को ही दिया जाता है, ब्राह्मणेत्तर दूसरे लोगों को नहीं, इसलिए यज्ञीय अन्न को 'एकपाक्षिक' कहा गया है। गाथा १८-उपज्योतिष्क का अर्थ है-अग्नि के समीप रहने वाला रसोइया। चूर्णि में दण्ड और फल का अर्थ क्रमश: कोहनी का प्रहार तथा एडी का प्रहार किया है। यह शब्द ऐसे ही लगते हैं, जैसे आज कल किसी को लात और घूसों से मारना। गाथा २४–'वेयावडियं' की व्युत्पत्ति चूर्णिकार ने बड़ी ही महत्त्वपूर्ण की है। जिससे कर्मों का विदारण होता है, उसे 'वैयावडिय' कहते हैं-'विदारयति वेदारयति वा कर्म वेदावडिता।' गाथा २७–'आशीविष' एक योगजन्य लब्धि अर्थात् विभूति है। आशीविष लब्धि के द्वारा साधक किसी का भी मनचाहा अनुग्रह और निग्रह करने में समर्थ हो जाता है। वैसे आशीविष सर्प को भी कहते हैं। मुनि को छेड़ना, आशीविष सर्प को छेड़ना है। अध्ययन १३ गाथा १-धर्माचरण के बदले में भोग प्राप्ति के लिए किया जाने वाला संकल्प निदान है। यह आर्तध्यान का ही एक भेद है। गाथा ६-चूर्णि और सर्वार्थ सिद्धि के अनुसार गंगा प्रतिवर्ष अपना मार्ग बदलती रहती है। जो पहले का मार्ग छोड़ देती है, उस चिरत्यक्त मार्ग को मृतगंगा कहते हैं। अध्ययन १४ गाथा ८-९-मनुस्मृति (६ । ३७) कहती है-"जो ब्राह्मण वेदों को पढ़े बिना, पुत्रों को उत्पन्न किए बिना, और यज्ञ किए बिना मोक्ष चाहता है, वह अधोगति अर्थात् नरक में जाता है।" -अनधीत्य द्विजो वेदाननुत्पाद्य तथा सुतान्। अनिष्ट्वा चैव यज्ञैश्च मोक्षमिच्छन्ब्रजत्यधः ।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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