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अध्ययन
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जाति थी । कुछ विद्वानों की दृष्टि में 'ज्ञात' आज के विहार प्रदेश के 'भूमिहार' हैं । भूमिहार अपने को ब्राह्मण भी कहते हैं और क्षत्रिय भी । कुछ तो सीधा ही अपने को 'ब्राह्मण राजपूत' कह देते हैं ।
भगवान् महावीर का विशाला अर्थात् वैशाली (उपनगर - कुण्डग्राम) में जन्म होने से उन्हें वेसालिय-वैशालिक कहा जाता है । यद्यपि चूर्णि एवं टीकाओं में, जिसके गुण विशाल हैं, जिसकी माता वैशाली है, जिसका कुल, प्रवचन एवं शासन विशाल है, वह वैशालिक है - ऐसा कहा गया है । परन्तु इतिहास के आलोक में 'वेसालिय' का सम्बन्ध वैशाली नगरी से है, यह स्पष्टत: प्रमाणित हो चुका है ।
भगवान् महावीर की माता त्रिशला वैशाली गणराज्य के अधिपति चेटक की बहन थी, अत: चूर्णिकार ने 'वैशाली जननी यस्य' ऐसा जो कहा है, संभव है, वह वैशाली की ओर ही संकेत हो ।
अध्ययन ७
गाथा १ - 'जवस' का संस्कृतरूप यवस है। टीकाकार इसका अर्थ - मूंग, उरद आदि धान्य करते हैं। जबकि अभिधानचिन्तामणि ( ४ । २६१) आदि शब्द-कोशों में यवस का अर्थ - तृण, घास, गेहूँ आदि धान्य किया गया है ।
गाथा १० - टीकाकारों ने आसुरीय दिशा के दो अर्थ किए हैं - एक तो जहाँ सूर्य न हो, वह दिशा । और दूसरा रौद्र कर्म करने वाले असुरों की दिशा । दोनों का ही फलितार्थ नरक है । ईशावास्य उपनिषद् में भी आत्महन्ता जनों को अन्धतमस् से आवृत असुर्य लोक में जाना बताया है - 'असुर्या नाम ते लोका, अन्धेन तमसावृताः ।'
गाथा ११ - चूर्णि के अनुसर 'काकिणी' एक रूपक अर्थात् रुपये के अस्सीवें भाग का जितना क्षुद्र सिक्का है । बृहद् वृत्तिकार शान्त्याचार्य ने बीस कोड़ियों की एक काकिणी मानी है।
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सहस्र से हजार 'कार्षापण' अभीष्ट है। कार्षापण प्राचीन युग में एक बहुप्रचलित सिक्का था, जो सोना, चाँदी और ताँबा - तीनों धातुओं का होता था । सामान्यत: सोने का कार्षापण १६ माशा, चाँदी का ३२ रत्ती और ताँबे का ८० रत्ती जितना भार वाला होता था ।
अध्ययन ८
गाथा १२ – 'प्रान्त' निम्न स्तर का नीरस भोजन है । उसके सम्बन्ध में दो बात हैं । गच्छवासी स्थविरकल्पी मुनि को यदि नीरस भोजन मिल जाए तो उसे फेंकना नहीं, खाना ही चाहिए। जिनकल्पी मुनि के लिए सदैव प्रान्त भोजन का ही विधान है
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