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५-अध्ययन
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कल्पसूत्र की किरणावली टीका में भी उसके दो मुख और दो जिह्वा होने का उल्लेख है। इसका अर्थ है कि दो ग्रीवा एवं दो मुख होने से उसके आँख, कान आदि सब दो-दो हैं। जब वह एक ग्रीवा से भोजन करता है, तो दूसरी ग्रीवा को ऊपर किए हुए आँखों से देखता रहता है कि कोई मुझ पर आक्रमण तो नहीं करता है। इस दृष्टि से साधक को अप्रमत्तता के लिए भारण्ड पक्षी की उपमा दी जाती है। कल्पसूत्र में भगवान महावीर को भी अप्रमत्तता एवं सतत जागरूकता के लिए भारंड पक्षी की उपमा दी है। उक्त पक्षी का वर्णन वसुदेवहिण्डी आदि अनेक प्राचीन जैन-कथा ग्रन्थों में भी आता है।
अध्ययन ५ गाथा २–'मरण' के दो प्रकार हैं-अकाम और सकाम। अकाम मरण वह है, जो व्यक्ति विषयों व भोगों की तमन्ना में जीना ही चाहता है, मरना नहीं। वह हरक्षण मरण से संत्रस्त रहता है। फिर भी आयुक्षय होने पर उसे लाचारी में मरना होता है। बृहद बृत्ति में इसी भाव को इन शब्दों में अभिव्यक्ति दी है-'ते हि विषयाभिष्वङ्गतो मरणमनिच्छन्त एव म्रियन्ते।' सकाम मरण कामनासहित मरण है। इसका यह अर्थ नहीं कि साधक मरने की कामना करता है। मरण की कामना तो साधना का दोष है। इसका केवल इतना ही अभिप्रेत अर्थ है कि जो साधक विषयों के प्रति अनासक्त रहता है, जीवन और मरण दोनों ही स्थितियों में सम होता है, वह मरण काल के समय भयभीत एवं संत्रस्त नहीं होता, अपितु अपनी पूर्ण आध्यात्मिक तैयारी के साथ अभय भाव से मृत्यु का स्वागत करता है। इस प्रकार अकाम बाल मरण है, और सकाम पण्डित मरण।
गाथा १०-'दुहओ मलं संचिणाइ सिसुनागुव्व मट्टियं' में कहा है कि जैसे शिशुनाग दोनों ओर से मिट्टी का संचय करता है, वैसे ही बाल-जीव भी दोनों ओर से कर्ममल का संचय करता है। चूर्णिकार ने दुहओ के स्वयं पापाचार करना और दूसरों से कराना, मन और वाणी, राग और द्वेष, पुण्य और पाप आदि अनेक विकल्प किए हैं।
शिशुनाग गंडूपद अर्थात् अलसिया को कहते हैं। वह मिट्टी खाकर अन्दर में मल का संचय करता है, और शरीर की स्निग्धता के कारण बाहर में भी इधर-उधर रेंगते हुए अपने शरीर पर मिट्टी चिपका लेता है।
गाथा १३–जीवों की उत्पत्ति के तीन प्रकार हैं-गर्भ, सम्मूर्च्छन और उपपात। गर्भ से पैदा होने वाले पशु, पक्षी और मनुष्य आदि गर्भज हैं।
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