________________
४२६
उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण
अर्थात् ७० लाख छप्पन हजार करोड़ (७०,५६०००,०००,००००) वर्षों को पूर्व कहते हैं। बृहवृत्ति में लिखा है-'पूर्वाणि वर्ष सप्ततिकोटिलक्ष षट् पंचाशत्कोटिसहस्रपरिमितानि।'
गाथा १७–उत्तराध्ययन सत्र की आचार्य नेमिचन्द्र कृत 'सखबोधा' वृत्ति के अनुसार 'कामस्कन्ध' का अर्थ होता है-“काम अर्थात् मनोज्ञ शब्द-रूपादि के हेतुभूत पुद्गलों का स्कन्ध–समूह । भोग-विलास के मनोज्ञ साधन ।
'दास पौरुसं' में आए दास का अर्थ है—'वह गुलाम, जो खरीदा हुआ है, जो क्रेता स्वामी की वैधानिक संपत्ति समझा जाता है।' दास और कर्मकर अर्थात् नौकर में यही अन्तर है कि दास खरीदा हआ होने से स्वामी की सम्पत्ति है और कर्मकर वेतन लेकर अमुक समय तक काम करता है, फिर छुट्टी। उस पर काम कराने वाले स्वामी का खरीदने-बेचने जैसा कोई अधिकार नहीं होता।
सुप्रसिद्ध चूर्णिकार श्री जिनदास गणी की निशीथ चूर्णि (भाग० ३ पृ० २६३, भा० गा० ३६७६) में दस प्रकार के दास बताए हैं—(१) परम्परागत, (२) खरीदा हुआ, (३) कर्ज अदा न करने पर निगृहीत किया हुआ, (४) दुर्भिक्ष आदि होने पर भोजन-वस्त्र आदि के लिए दासत्व स्वीकार करने वाला, (५) किसी अपराध के कारण दण्डस्वरूप किया गया जुर्माना अदा न करने पर राजा द्वारा दास बनाया गया, (६) बन्दी के रूप में जो दास बना लिया गया हो, वह।
मनुस्मृति (१ । ४१५) में दासों के सात प्रकार बताए हैं-(१) ध्वजाहृतसंग्राम में पराजित, (२) भक्त-भोजन आदि के लिए बना दास, (३) गृहजअपने घर की दासी से उत्पन्न, (४) क्रीत–खरीदा हुआ, (५) दात्रिम-किसी के द्वारा उपहारस्वरूप दिया हुआ, (६) पैतृक-पैतृक धन के रूप में पुत्र को प्राप्त, (७) दण्ड-ऋण चुकाने के लिए दासत्व स्वीकार करने वाला।
मनुस्मृति (८ । ४१६) में दासों को 'अधन' बताया गया है। दास जो भी धन संग्रह करते हैं, वह सब उनका होता है, जिनके वे दास होते हैं।
धर्मसाधना की फलश्रुति के रूप में दासों की प्राप्ति का उल्लेख आध्यात्मिक एवं सामाजिक न्याय की दृष्टि से उचित नहीं प्रतीत होता।
अध्ययन ४ गाथा ६–'घोरा मुहत्ता' में मुहूर्त शब्द सामान्य रूप से समग्र काल का उपलक्षण है। प्राणी की आयु हर क्षण क्षीण होती रहती है, इसलिए काल को घोर अर्थात् रौद्र कहा है।
भारण्ड पक्षी पौराणिक युग का एक विराट पक्षी माना गया है। पंचतंत्र आदि में उसके दो ग्रीवा और एक पेट माना है—'एकोदरा: पृथग् ग्रीवाः'।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org