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________________ ३-अध्ययन ४२५ रहता है। इसके विपरीत दिन में एवं ग्रीष्म ऋतु आदि में अचेलक। शान्त्याचार्य के मतानुसार जिनकल्पी मुनि अचेलक रहते हैं। स्थविरकल्पी भी वस्त्रप्राप्ति के अभाव में अचेलक रह सकता है। गाथा ३३-बृहदवृत्ति के अनुसार जिनकल्पी मुनि के लिए चिकित्सा करना और कराना सर्वथा निषिद्ध है। स्थविरकल्पी सावद्य-पापकारी चिकित्सा न करे, न कराए। चूर्णिकार ने सामान्य रूप से सभी मुनियों के लिए चिकित्सा करने-कराने का निषेध किया है। गाथा ३९-चूर्णि के अनुसार 'अणुक्कसाई' के दो रूप होते हैंअणुकषायी-अल्पकषाय वाला और अनुत्कशायी-सत्कार-सम्मान आदि के लिए उत्कंठा न रखने वाला। गाथा ४३--आगमों का विधिवत् अध्ययन करते समय परम्परागत निश्चित विधि के अनुसार जो आयंबिल आदि का तप किया जाता है; वह उपधान है। आचार-दिनकर तथा योगोद्वहनविधि आदि ग्रन्थों में प्रत्येक आगम के लिए तप के दिन और तप की विधि का विस्तार से वर्णन है। पडिमा–प्रतिमा का अर्थ कायोसर्ग है। अध्ययन ३ गाथा ४–चूर्णि और बृहवृत्ति के अनुसार 'क्षत्रिय' शब्द से ब्राह्मण-वैश्य आदि उच्च जातियों, 'चाण्डल' शब्द से निषाद-श्वपच आदि नीच जातियों और बुक्कस शब्द से सूत, वैदेह आदि संकीर्ण जातियों का ग्रहण होता है। चाण्डाल और श्वपचों के काम मनुस्मृति (१०, ५१-५२) के अनुसार गाँव से बाहर रहना, फूटे पात्रों में भोजन करना, मृतक के वस्त्र लेना, लोहे के बने आभूषण पहनना आदि हैं। कुत्ते और गधे ही इनकी धन-संपत्ति हैं। गाथा १४-यक्ष शब्द 'यज्' धातु से बना है, जो पहले अच्छे देव के अर्थ में व्यवहृत होता था। बाद में यह निम्न कोटि की देवजाति के लिए प्रयुक्त होने लगा। 'महासुक्क' के महाशुक्ल और महाशुक्र दोनों रूप होते हैं । चन्द्र, सूर्य आदि उज्ज्वल कान्ति वाले ग्रह महाशुक्ल कहलाते हैं और निर्धूम महान् अग्नि 'महाशुक्र ।' गाथा १५–'पूर्व' शब्द जैन-परम्परा में एक संख्या विशेष का वाचक है। ८४ लाख को ८४ लाख से गुणन करने पर जो संख्या होती है, वह पूर्व है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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