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________________ ४२४ उत्तराध्ययन सूत्र टिप्पण गाथा १२–'गलियस्स' का अर्थ है-अविनीत घोड़ा। 'गलि'-अविनीत अर्थात् दुष्ट को कहते हैं। 'गलि:-अविनीत:'-बृहद् वृत्ति। 'अकीर्ण' विनीत अश्व और बैल को कहते हैं। गाथा १८–कृति का अर्थ-वन्दन है। जो वन्दन के योग्य हो, वह कृत्य अर्थात् गुरु एवं आचार्य है। . गाथा १९–'पल्हत्थिय' और 'पक्खपिण्ड' के क्रमश: संस्कृत रूपान्तर हैं-पर्यस्तिका और पक्षपिण्ड । घुटनों और जंघाओं को कपड़े से बाँधकर बैठना, पर्यस्तिका है, और दोनों भुजाओं से घुटनों और जंघाओं को आवेष्टित करके बैठना, पक्षपिण्ड है। ___ गाथा २६-चूर्णिकार 'समर' का अर्थ-लोहार की 'शाला' करते हैं, और शान्त्याचार्य नाई की दुकान, लोहार की शाला तथा अन्य इसी प्रकार के साधारण निम्न स्थान करते हैं। 'समर' का दूसरा अर्थ-युद्ध भी किया गया है। चूर्णि में अगार का अर्थ-सूना घर है। दो या बहुत घरों के बीच की जगह 'संधि' है। दो दीवारों के बीच के प्रच्छन्न स्थान को भी संधि कहते हैं। गाथा ३५–'अप्पपाण' और 'अप्पबीय' में 'अल्प' शब्द अभाववाची है। 'अल्या अविद्यमानाः प्राणा: प्राणिनो यस्मिंस्तदल्पप्राणम्'–बृहवृत्ति । गाथा ४७–'पुज्जसत्थे' का अर्थ 'पूज्यशास्त्र' किया जाता है । इसका दूसरा रूप 'पूज्यशास्ता' भी हो सकता है। शास्ता का अर्थ है-अनुशास्ता, आचार्य, गुरु। कर्मसंपदा के दो अर्थ हैं—साधुओं के द्वारा समाचरित सामाचारी और योगज विभूति। अध्ययन २ गाथा ३–'कालीपव्वंगसंकासे' में 'कालीपव्व' का अर्थ-काकजंघा नामक तृणविशेष है । मुनि श्री नथमलजी के मतानुसार इसे हिन्दी में गुंजा या घुघची का वृक्ष कहते हैं। डा० हर्मन जेकोबी डा० सांडेसरा आदि आधुनिक विद्वान् इसका सीधा ही अर्थ 'कौए की जांघ' करते हैं। गाथा १३-चूर्णि के अनुसार मुनि जिनकल्प अवस्था में अचेलक रहता है। स्थविरकल्प अवस्था में शिशिररात्र (पौष और माघ), वर्षारात्र (भाद्रपद और आश्विन), वर्षा बरसते समय तथा प्रात:काल भिक्षा के लिए जाते समय सचेलक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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