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अध्ययन १
गाथा १ – संयोग का अर्थ आसक्तिमूलक सम्बन्ध है । वह बाह्य (परिवार तथा संपत्ति आदि) और आभ्यन्तर ( विषय, कषाय आदि) के रूप में दो प्रकार है
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'अणगारस्स भिक्खुणो' - में अनगार और भिक्षु दो शब्द हैं । अनगार का अर्थ है - अगार (गृह) से रहित । शान्त्याचार्य ने अनगार के आगे षष्ठी विभक्ति का प्रयोग न कर 'अणगारस्सभिक्खुणो' इस प्रकार सामासिक रूप देकर ‘अणगार' और ‘अस्सभिक्खु' ऐसा भी एक पदच्छेद किया है। अस्सभिक्खु अर्थात् अ-स्वभिक्षु, जो भिक्षु, आहार या वसति आदि की प्राप्ति के लिए जाति, कुल आदि का परिचय देकर दूसरों को अपनी ओर आकृष्ट कर आत्मीय (स्वजन) नहीं बनाता है ।
विनय का एक अर्थ आचार है, और दूसरा है विनमन अर्थात् नम्रता । 'विनयः साधुजनासेवितः समाचारस्तं विनमनं वा विनयम् - शांत्त्याचार्य कृत बृहद्वृत्ति ।
गाथा २ - आज्ञा और निर्देश समानार्थक हैं। फिर भी उत्तराध्ययन चूर्णि के अनुसार वैकल्पिक रूप में आज्ञा का अर्थ होता है - 'आगम का उपदेश' और निर्देश का अर्थ होता है - ' आगम से अविरुद्ध गुरुवचन ।'
इंगित और आकार शरीर की चेष्टाविशेषों के वाचक हैं। किसी कार्य के विधि या निषेध के लिए शिरः कम्पन आदि की सूक्ष्म चेष्टा इंगित है और इधर-उधर दिशाओं को देखना, जंभाई लेना, आसन बदलना आदि स्थूल चेष्टाएँ 'आकार' हैं, जिनका फलितार्थ साधारण बुद्धि के लोग भी समझ सकते हैं ।
'संपन्ने' का अर्थ सम्पन्न (युक्त) भी है और संप्रज्ञ (जानने वाला) भी । वृहद् वृत्ति में दोनों अर्थ हैं ।
उत्तराध्ययन चूर्णि के मतानुसार 'कणकुण्डग' के दो अर्थ हैं ---- चावलों की भूसी अथवा चावलमिश्रित भूसी । यह पुष्टिकारक एवं सूअर का प्रिय भोजन है । 'कणा नाम तंडुलाः, कुंडगा कुक्कुसा: कणमिस्सो वा कुंडक : ' - चूर्णि ।
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