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परीषह - प्रविभक्ति
साधक परीषह आने पर परीषहों से घबराए नहीं । परीषह एक कसौटी है ।
बीज को अंकुरित होने में जल के साथ धूप की भी आवश्यकता होती है । क्या इसी प्रकार जीवन-निर्माण के लिए अनुकूलता की शीतलता के साथ, परीषह की प्रतिकूलता रूप गरमी की आवश्यकता नहीं है ? वस्तुतः प्रकृति दोनों के पूर्ण सहयोग में ही प्रकट होती है ।
इसी बात को आर्य सुधर्मा स्वामी समझाते हैं कि नि:श्रेयस की प्राप्ति के लिए संयम के मार्ग पर चलने वाले साधक के जीवन में परीषह आते हैं, किन्तु सच्चे साधक के लिए वे बाधक नहीं, उपकारक ही होते हैं । अत: साधक परीषह के आने पर घबराता नहीं, उद्विग्न नहीं होता, अपितु उन्हें शान्त भाव से सहन करता है । वस्तुस्थिति का द्रष्टा होकर वह उन्हें मात्र जानता है, उनसे परिचित होता है । किन्तु उनके दबाव में स्वीकृत प्रतिज्ञा के विरुद्ध आचरण नहीं करता, आत्म ति के पथ पर बढ़ते हुए बीच में आने वाली विघ्न-बाधाओं में भी संयम की सुरक्षा का सतत ध्यान रखता है ।
परीषह के इस प्रकरण में एक और बात ध्यान में रखना जरूरी है, कि परीषह का अर्थ शरीर या मन को कष्ट देना नहीं है, और न आये हुए कष्टों को मजबूरी से सहन करना है । परीषह का अर्थ है - प्रत्येक प्रतिकूल परिस्थिति को, साधना में सहायक होने के क्षणों तक, प्रसन्नता पूर्वक स्वीकृति देना । उससे न इधर उधर भागना है, न बचने का कोई गलत मार्ग खोजना है, न उनका मर्यादाहीन प्रतिकार करना है ।
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