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________________ उत्तराध्ययन सूत्र ४५. नच्चा नमइ मेहावी लोए कित्ती से जायए। हवई किच्चाणं सरणं भूयाणं जगई जहा॥ ४६. पुज्जा जस्स पसीयन्ति संबुद्धा पुव्वसंथुया। पसन्ना लाभइस्सन्ति विउलं अट्ठियं सुयं ॥ विनय के स्वरूप को जानकर जो मेधावी शिष्य विनम्र हो जाता है, उसका लोक में कीर्ति होती है। प्राणियों के लिए पृथ्वी जिस प्रकार आधार होती है, उसी प्रकार योग्य शिष्य समय पर धर्माचरण करने वालों का आधार बनता है। शिक्षण काल से पूर्व ही शिष्य के विनय-भाव से परिचित, संबुद्ध, पूज्य आचार्य उस पर प्रसन्न रहते हैं। प्रसन्न होकर वे उसे अर्थगंभीर विपुल श्रुत ज्ञान का लाभ करवाते हैं। वह शिष्य पूज्यशास्त्र होता है-अर्थात् उसका शास्त्रीय ज्ञान जनता में सम्मानित होता है। उसके सारे संशय मिट जाते हैं। वह गुरु के मन को प्रिय होता है। वह कर्मसम्पदा से अर्थात् साधु-समाचारी से युक्त होता है। वह तप समाचारी और समाधि से सम्पन्न होता है। पाँच महावतों का पालन करके वह महान् तेजस्वी होता ४७. स पुज्जसत्ये सुविणीयसंसए मणोरुई चिदुइ कम्म-संपया। तवोसमायारिसमाहिसंवुडे महज्जुई पंच वयाइं पालिया। ४८. स देव-गन्धव्व-मणुस्सपूइए चइत्तु देहं मलपंकपुव्वयं । सिद्धे वा हवइ सासए देवे वा अप्परए महिटिए । वह देव, गन्धर्व और मनुष्यों से पूजित विनयी शिष्य मल पंक से निर्मित इस देह को त्याग कर शाश्वत सिद्ध होता है अथवा अल्प कर्म वाला महान् ऋद्धि-सम्पन्न देव होता है। —ऐसा मैं कहता हूँ ! -त्ति बेमि। ***** Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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