SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 44
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १-विनय-श्रुत ४०. न कोवए आयरियं अप्पाणं पि न कोवए। बुद्धोवचाई न सिया न सिया तोत्तगवेसए॥ ४१. आयरियं कुवियं नच्चा पत्तिएण पसायए। विज्झवेज्ज पंजलिउडो वएज्ज 'न पुणो' त्ति य॥ शिष्य को चाहिए कि वह न तो आचार्य को कुपित करे और न उनके कठोर अनुशासनादि से स्वयं ही कुपित हो । आचार्य का उपघात करने वाला न हो। और न गुरु को खरी-खोटी सुनाने के फिराक में उनका छिद्रान्वेषी हो। अपने किसी अभद्र व्यवहार से आचार्य को अप्रसन्न हुआ जाने तो विनीत शिष्य प्रीतिवचनों से उन्हें प्रसन्न करे। हाथ जोड़ कर उन्हें शान्त करे और कहे कि “मैं फिर कभी ऐसा नहीं करूँगा।" ___ जो व्यवहार धर्म से अर्जित है, और प्रबुद्ध आचार्यों के द्वारा आचरित है, उस व्यवहार को आचरण में लाने वाला मुनि कभी निन्दित नहीं होता है। शिष्य आचार्य के मनोगत और वाणीगत भावों को जान कर उन्हें सर्वप्रथम वाणी से ग्रहण (स्वीकार) करे और फिर कार्य रूप में परिणत करे। ४२. धम्मज्जियं च ववहारं बुद्धेहायरियं सया। तमायरन्तो ववहारं गरहं नाभिगच्छई॥ ४३. मणोगयं वक्कगयं जाणित्ताऽऽयरियस्स उ। तं परिगिज्झ वायाए कम्मणा उववायए। ४४. वित्ते अचोइए निच्चं खियं हवइ सुचोइए। जहोवइ8 सुकयं किच्चाई कुव्वई सया॥ विनयी रूप से प्रसिद्ध शिष्य गुरु के द्वारा प्रेरित न किए जाने पर भी कार्य करने के लिए सदा प्रस्तुत रहता है। प्रेरणा होने पर तो तत्काल यथोपदिष्ट कार्य अच्छी तरह सम्पन्न करता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy