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उत्तराध्ययन सूत्र
परीषह आने पर साधक सोचता है कि यह एक अवसर है स्वयं को नापने और परखने का। अत: वह घबराता नहीं है। वरन् मन की आदतों और सुविधाओं की प्रतिबद्धताओं को तोड़कर स्वतन्त्र, निर्भय एवं निर्द्वन्द्व खड़ा हो जाता है।
वह वातावरण का खिलौना नहीं बनता, अपितु बाहर में होने वाले इन खेलों का वह ज्ञाता द्रष्टा बनता है। उसका यह ज्ञान ही आन्तरिक अनाकुलता एवं सुख का कारण बनता है। अत: परीषह दुःख नहीं हैं, कष्ट नहीं हैं। और न मजबूरी से सहन की गई कोई दुःस्थिति ही हैं।
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