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________________ ४०९ सम्मच्छिम मनुष्यों के भेद भी इसी प्रकार हैं। वे सब भी लोक के एक भाग में व्याप्त हैं। उक्त मनुष्य प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं, स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं। मनुष्यों की आयु-स्थिति उत्कृष्ट तीन पल्योपम और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। ३६-जीवाजीव-विभक्ति १९८. संमुच्छिमाण एसेव भेओ होइ आहिओ। लोगस्स एगदेसम्मि ते सव्वे वि वियाहिया॥ १९९. संतई पप्पऽणाईया अपज्जवसिया वि य। ठियं पडुच्च साईया सपज्जवसिया वि य॥ २००. पलिओवमाई तिण्णि उ उक्कोसेण वियाहिया आउढिई मणुयाणं अन्तोमुहुत्तं जहनिया॥ २०१. पलिओवमाइं तिण्णि उ उक्कोसेण वियाहिया। पुवकोडीपुहत्तेणं अन्तोमुहुत्तं जहनिया ।। २०२. कायट्टिई मणुयाणं अन्तरं तेसिमं भवे। अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं ।। २०३. एऐसि वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ। संठाणादेसओ वावि विहाणाइं सहस्ससो॥ उत्कृष्टतः पृथक्त्व करोड़ पूर्व अधिक तीन पल्योपम, और जघन्य अन्तर्मुहूर्त मनुष्यों की काय-स्थिति है उनका अन्तर जघन्य अन्तर्मुहर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है। वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से उनके हजारों भेद हैं। देवत्रस भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक-ये देवों के चार भेद हैं। २०४. देवा चउव्धिहा वुत्ता ते मे कित्तयओ सुण। भोमिज्ज-वाणमन्तरजोइस-वेमाणिया तहा॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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