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पप्पऽणाईया
अपज्जवसिया वि य । ठिझं पडुच्च साईया सपज्जवसिया विय ॥
१२१. संतई
सहस्साई
वाणुको भ 1 आउट्ठ वाऊणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया ||
१२२. तिण्णेव
।
१२३. असंखकालमुक्कोसं अन्तोमुत्तं जहन्नयं । कायट्टिई तं कायं तु अमुचओ ॥
वाऊणं
१२४. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए वाउजीवाण अन्तरं ॥
१२५. एएसिं वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो ||
१२६. ओराला तसा जे उ चउहा ते पकित्तिया । बेइन्दिय-तेइन्दियचउरो - पंचिन्दिया चेव ॥
१२७. बेइन्दिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया ।
पज्जत्तमपज्जत्ता
सिंए सुह मे ॥
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उत्तराध्ययन सूत्र
वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं ।
उनकी वायु-स्थिति उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त
की ।
उनकी कायस्थिति उत्कृष्ट असंख्यातकाल की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। वायु के शरीर को छोड़कर निरन्तर वायु के शरीर में ही पैदा होना, काय-स्थिति है
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वायु के शरीर को छोड़कर पुनः वायु के शरीर में उत्पन्न होने में जो अन्तर है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है ।
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से वायुकाय के हजारों भेद होते हैं ।
उदार त्रस काय
उदार त्रसों के चार भेद हैंद्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय ।
द्वीन्द्रिय स
द्वीन्द्रिय जीव के दो भेद हैंपर्याप्त और अपर्याप्त । उनके भेदों को से सुनो।
मुझ
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