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________________ ३९८ पप्पऽणाईया अपज्जवसिया वि य । ठिझं पडुच्च साईया सपज्जवसिया विय ॥ १२१. संतई सहस्साई वाणुको भ 1 आउट्ठ वाऊणं अन्तोमुहुत्तं जहन्निया || १२२. तिण्णेव । १२३. असंखकालमुक्कोसं अन्तोमुत्तं जहन्नयं । कायट्टिई तं कायं तु अमुचओ ॥ वाऊणं १२४. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए वाउजीवाण अन्तरं ॥ १२५. एएसिं वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो || १२६. ओराला तसा जे उ चउहा ते पकित्तिया । बेइन्दिय-तेइन्दियचउरो - पंचिन्दिया चेव ॥ १२७. बेइन्दिया उ जे जीवा दुविहा ते पकित्तिया । पज्जत्तमपज्जत्ता सिंए सुह मे ॥ Jain Education International उत्तराध्ययन सूत्र वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा से सादि सान्त हैं । उनकी वायु-स्थिति उत्कृष्ट तीन हजार वर्ष की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की । उनकी कायस्थिति उत्कृष्ट असंख्यातकाल की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। वायु के शरीर को छोड़कर निरन्तर वायु के शरीर में ही पैदा होना, काय-स्थिति है I वायु के शरीर को छोड़कर पुनः वायु के शरीर में उत्पन्न होने में जो अन्तर है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है । वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से वायुकाय के हजारों भेद होते हैं । उदार त्रस काय उदार त्रसों के चार भेद हैंद्वीन्द्रिय त्रीन्द्रिय चतुरिन्द्रिय और पंचेन्द्रिय । द्वीन्द्रिय स द्वीन्द्रिय जीव के दो भेद हैंपर्याप्त और अपर्याप्त । उनके भेदों को से सुनो। मुझ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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