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३६ - जीवाजीव - विभक्ति
११४. असंखकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । तेऊणं
काय
तं कायं तु अचओ ॥
११५. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए
तेजीवाण अन्तरं ॥
११६. एएसिं वण्णओ चेव गन्धओ रसफासओ । संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्ससो ||
११७. दुविहा वाउजीवा उ
सुहुमा बायरा तहा । पज्जत्तमपज्जत्ता
दुहा पुणो ॥
११८. बायरा जे उ पज्जत्ता पंचहा ते पकित्तिया । उक्कलिया- मण्डलियाघण-गुंजा सुद्धवाया य ॥
११९. संवट्टगवा
य
surविहा एवमायओ । एगविहमणाणत्ता सुमा ते वियाहिया |
सव्वलोगम्मि
लोगदेसे य वायरा । इतो कालविभागं तु तेसिं वुच्छं चउव्विहं ||
१२०. सुहुमा
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तेजस्काय की काय स्थिति उत्कृष्ट असंख्यात काल की है और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है। तेजस के शरीर को छोड़कर निरन्तर तेजस् के शरीर में ही पैदा होना, काय स्थिति है ।
तेजस के शरीर को छोड़कर पुनः तेजस के शरीर में उत्पन्न होने में जो अन्तर है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है ।
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से तेजस् के हजारों भेद
हैं ।
वायु सकाय
वायुकाय जीवों के दो भेद हैं- सूक्ष्म और बादर । पुनः उन दोनों के पर्याप्त और अपर्याप्त दो-दो भेद हैं ।
बादर पर्याप्त वायुकाय जीवों के पाँच भेद हैं- उत्कलिका, मण्डलिका, धनवात, गुंजावात और शुद्धवात ।
संवर्तक- वात आदि और भी अनेक भेद हैं। सूक्ष्म वायुकाय के जीव एक प्रकार के हैं, उनके भेद नहीं
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सूक्ष्म वायुकाय के जीव सम्पूर्ण लोक मैं ; और बादर वायुकाय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं । इस निरूपण के बाद चार प्रकार से वायुकायिक जीवों के काल-विभाग का कथन करूँगा ।
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