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३६ - जीवाजीव - विभक्ति
१२८. किमिणो सोमंगला चेव
अलसा
माइवाहया । वासीमुहा य सिप्पीया संखा संखणगा तहा ॥
१२९. पल्लोयाणुल्लया चेव
तहेव य वराडगा । जलूगा जालगा चेव चन्दणा य तहेव य ॥
१३०. इइ बेइन्दिया एए गहा एवमायओ । लोगेगदेसे ते सव्वे न सव्वत्य वियाहिया ||
१३१. संतई
पप्पऽणाईया
अपज्जवसिया वि य । ठिझं पडुच्च साईया सपज्जवसिया विय ॥
१३२. वासाई बारसे व उ
उक्कोसेण वियाहिया । बेइन्दिय आउठिई
अन्तोमुहत्तु जहनिया ||
१३३. संखिज्जकालमुक्कोसं अन्तोमुहत्तं जहन्नयं । बंइन्दियकायठिई
तं कायं तु अचओ ॥
१३४. अणन्तकालमुक्कोसं
अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । बेइन्दियजीवाणं अन्तरेयं वियाहियं ॥
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कृमि, सौमंगल, अलस, मातृवाहक, वासीमुख, सीप, शंख, शंखनक
पल्लोय, अणुल्लक, वराटककोड़ी, जौक, जालक और चन्दनिया
इत्यादि अनेक प्रकार के द्वीन्दिय जीव हैं। वे लोक के एक भाग में व्याप्त हैं, सम्पूर्ण लोक में नहीं ।
प्रवाह की अपेक्षा से वे अनादि अनन्त हैं और स्थिति की अपेक्षा वे सादि सान्त हैं ।
उनकी आयु-स्थिति उत्कृष्ट बारह वर्ष की, और जघन्य स्थिति अन्तर्मुहूर्त की है।
उनकी काय-स्थिति उत्कृष्ट संख्यात काल की और जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है । द्वीन्द्रिय के शरीर को न छोड़कर निरंतर द्वीन्द्रिय शरीर में ही पैदा होना, काय स्थिति है ।
द्वीन्द्रिय के शरीर को छोड़कर पुन: द्वीन्द्रिय शरीर में उत्पन्न होने में जो अंतर है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट अनन्त काल का है
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