________________
३६ - जीवाजीव - विभक्ति
१००. एगविहमणाणत्ता सुहुमा तत्थ वियाहिया । सव्वलोगम्मि
सुहुमा
लोगदेसे य बायरा ॥
पप्पऽणाईया
अपज्जवसिया विय । ठिनं पडुच्च साईया सपज्जवसिया विय ॥
१०१. संत
१०२. दस चेव सहस्साई वासाक्कोसिया भवे । वणप्फईण आउं तु अन्तोमुहुत्तं जहन्नगं ॥
१०३. अणन्तकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । कायठि
पणगाणं
तं कायं तु अचओ ॥
१०४. असंखकालमुक्कोसं अन्तोमुहुत्तं जहन्नयं । विजढंमि सए काए पणजीवाण अन्तरं ॥
१०५. एएसिं वण्णओ चेव गन्धओ सफासओ । संठाणादेसओ वावि विहाणाई सहस्सओ ||
१०६. इच्चेए थावरा तिविहा समासेण वियाहिया । इतो उ तसे तिविहे वुच्छामि अणुपुव्वसो ||
Jain Education International
३९५
सूक्ष्म वनस्पति काय के जीव एक ही प्रकार के हैं, उनके भेद नहीं हैं, सूक्ष्म वनस्पतिकाय के जीव सम्पूर्ण लोक में; और बादर वनस्पति काय के जीव लोक के एक भाग में व्याप्त हैं ।
वे प्रवाह की अपेक्षा से अनादि अनन्त हैं ; और स्थिति की अपेक्षा से
सादि सान्त हैं ।
उनकी दस हजार वर्ष की उत्कृष्ट और अन्त मुहूर्त की जघन्य आयु-स्थिति है।
उनकी अनन्त काल की उत्कृष्ट और अन्तर्मुहूर्त की जघन्य काय- स्थिति है । वनस्पति के शरीर को न छोड़कर निरन्तर वनस्पति के शरीर में ही पैदा हो, कायस्थ है।
वनस्पति के शरीर को छोड़कर पुनः वनस्पति के शरीर में उत्पन्न होने में जो अन्तर होता है, वह जघन्य अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट असंख्यात काल का है।
वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थान की अपेक्षा से वनस्पतिकाय के हजारों भेद हैं ।
इस प्रकार संक्षेप से तीन प्रकार के स्थावर जीवों का निरूपण किया गया । अब क्रमशः तीन प्रकार के त्रस जीवों का निरूपण करूँगा ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org