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३६--जीवाजीव-विभक्ति
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६१. संखंक-कुन्दसंकासा
पण्डुरा निम्मला सुहा। सीयाए जोयणे तत्तो लोयन्तो उ वियाहिओ।
वह शंख, अंकरत्न और कन्द पुष्प के समान श्वेत है, निर्मल और शुभ __ है। इस सीता नाम की ईषत्-प्राग्भारा
पृथ्वी से एक योजन ऊपर लोक का अन्त बतलाया है।
उस योजन के ऊपर का जो कोस है, उस कोस के छठे भाग में सिद्धों की अवगाहना होती है।
भवप्रपंच से मुक्त, महाभाग, परम गति 'सिद्धि' को प्राप्त सिद्ध वहाँ अग्रभाग में स्थित हैं।
अन्तिम भव में जिसकी जितनी ऊँचाई होती है, उससे त्रिभागहीन सिद्धों की अवगाहना होती है।
६२. जोयणस्स उ जो तस्स
कोसो उवरिमो भवे। तस्स कोसस्स छनभाए
सिद्धाणोगाहणा भवे॥ ६३. तत्थ सिद्धा महाभागा
लोयग्गम्मि पइट्ठिया। भवप्पवंचउम्मुक्का
सिद्धिं वरगई गया। ६४. उस्सेहो जस्स जो होइ
भवम्मि चरिमम्मि । तिभागहीणा तत्तो य
सिद्धाणोगाहणा भवे॥ ६५. एगत्तेण साईया
अपज्जवसिया वि य। पहत्तेण अणाईया
अपज्जवसिया वि य॥ ६६. अरूविणो जीवघणा
नाणदंसणसन्निया। अउलं सुहं संपत्ता
उवमा जस्स नत्थि उ॥ ६७. लोएगदेसे ते सव्वे
नाणदंसणसन्निया । संसारपारनिच्छिन्ना सिद्धिं वरगई गया।
एक की अपेक्षा से सिद्ध सादि-अनन्त है। और बहुत्व की अपेक्षा से सिद्ध अनादि, अनन्त हैं।
वे अरूप हैं, सघन हैं, ज्ञान-दर्शन से संपन्न हैं। जिसकी कोई उपमा नहीं ___ है, ऐसा अतुल सुख उन्हें प्राप्त है।
ज्ञान-दर्शन से युक्त, संसार के पार पहँचे हुए, परम गति सिद्धि को प्राप्त वे सभी सिद्ध लोक के एक देश में स्थित
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