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अगारेसु सन्धीसु य महापहे । एगो एगिथिए सद्धि नेव चिट्ठे न संलवे ॥
२६. समरेसु
२७. जं मे बुद्धाणुसासन्ति सीएण फरुसेण वा । 'मम लाभो' त्ति पेहाए पयओ तं पडिस्सुणे ॥
२८. अणुसासणमोवायं
दुक्कडस् य चोयणं । हियं तं मन्नए पण्णो वेस होइ असाहुणो ||
२९. हियं विगय-भया बुद्धा फरुसं पि अणुसासणं । वेसं तं होइ मूढाणं खन्ति - सोहिकरं
पयं ॥
३०. आसणे उवचिट्टेज्जा अणुच्चे अकु थिरे । अप्पुट्ठाई निरुट्ठाई निसीएज्जऽप्यकुक्कुए ॥
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उत्तराध्ययन सूत्र
लुहार की शाला में, घरों में, घरों की बीच की संधियों में और राजमार्ग में अकेला मुनि अकेली स्त्री के साथ खड़ा न रहे, न बात करे ।
'प्रिय अथवा कठोर शब्दों से आचार्य मुझ पर जो अनुशासन करते हैं, वह मेरे लाभ के लिए है - ऐसा विचार कर प्रयत्नपूर्वक उनका अनुशासन स्वीकार करे ।
आचार्य का प्रसंगोचित कोमल या कठोर अनुशासन दुष्कृत का निवारक होता है । उस अनुशासन को बुद्धिमान शिष्य हितकर मानता असाधु-अयोग्य के लिए वही अनुशासन द्वेष का कारण बन जाता है ।
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भय से मुक्त, मेधावी प्रबुद्ध शिष्य गुरु के कठोर अनुशासन को भी हितकर मानते हैं । किन्तु वही क्षमा एवं चित्त- विशुद्धि करने वाला गुरु का अनुशासन मूर्खों के लिए द्वेष का निमित्त हो जाता है ।
शिष्य ऐसे आसन पर बैठे, जो गुरु के आसन से नीचा हो, जिस से कोई आवाज न निकलती हो, जो स्थिर हो । आसन से बार-बार न उठे 1 प्रयोजन होने पर भी कम ही उठे, स्थिर एवं शान्त होकर बैठे — इधर-उधर चपलता न करे ।
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