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________________ ८ अगारेसु सन्धीसु य महापहे । एगो एगिथिए सद्धि नेव चिट्ठे न संलवे ॥ २६. समरेसु २७. जं मे बुद्धाणुसासन्ति सीएण फरुसेण वा । 'मम लाभो' त्ति पेहाए पयओ तं पडिस्सुणे ॥ २८. अणुसासणमोवायं दुक्कडस् य चोयणं । हियं तं मन्नए पण्णो वेस होइ असाहुणो || २९. हियं विगय-भया बुद्धा फरुसं पि अणुसासणं । वेसं तं होइ मूढाणं खन्ति - सोहिकरं पयं ॥ ३०. आसणे उवचिट्टेज्जा अणुच्चे अकु थिरे । अप्पुट्ठाई निरुट्ठाई निसीएज्जऽप्यकुक्कुए ॥ Jain Education International उत्तराध्ययन सूत्र लुहार की शाला में, घरों में, घरों की बीच की संधियों में और राजमार्ग में अकेला मुनि अकेली स्त्री के साथ खड़ा न रहे, न बात करे । 'प्रिय अथवा कठोर शब्दों से आचार्य मुझ पर जो अनुशासन करते हैं, वह मेरे लाभ के लिए है - ऐसा विचार कर प्रयत्नपूर्वक उनका अनुशासन स्वीकार करे । आचार्य का प्रसंगोचित कोमल या कठोर अनुशासन दुष्कृत का निवारक होता है । उस अनुशासन को बुद्धिमान शिष्य हितकर मानता असाधु-अयोग्य के लिए वही अनुशासन द्वेष का कारण बन जाता है । 1 भय से मुक्त, मेधावी प्रबुद्ध शिष्य गुरु के कठोर अनुशासन को भी हितकर मानते हैं । किन्तु वही क्षमा एवं चित्त- विशुद्धि करने वाला गुरु का अनुशासन मूर्खों के लिए द्वेष का निमित्त हो जाता है । शिष्य ऐसे आसन पर बैठे, जो गुरु के आसन से नीचा हो, जिस से कोई आवाज न निकलती हो, जो स्थिर हो । आसन से बार-बार न उठे 1 प्रयोजन होने पर भी कम ही उठे, स्थिर एवं शान्त होकर बैठे — इधर-उधर चपलता न करे । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003417
Book TitleAgam 43 Mool 04 Uttaradhyayan Sutra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandanashreeji
PublisherSanmati Gyan Pith Agra
Publication Year
Total Pages514
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_uttaradhyayan
File Size17 MB
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